________________
४२७
प्रस्तावः]
जीव-मनः-करणसंलाप-कथा । जं लावय-तित्तिरि-दहिय-मोर मोरंति अद्दोस वि के वि घोर ॥ १९॥
तं रसणह विलसिउ, दुक्कय-कलुसिउ, तुम्हहं कित्तिउ कित्तियइ । ____जं वरिससएण वि, अइनिउणेण वि, कह विन जंपिउ सकियइ ॥ २१ ॥
घाणिदिउ जं किर सुरहि दव्यु वियलिय विवेउ तं महइ सव्वु ।
जं असुरहि तिहिं पुण करेइ रोसु ता एउ वि जाण अणप्प-दोसु॥२२॥ __ तह जइ वि दिट्टि वन्नि अ अबला तहवि हु दुरप्प अच्चंत चवला ।
सुइ असुइ घि किं पि न परिहरेइ जं जुत्तु अजुत्तु वि तं निएइ ॥ २३ ॥
परदारपवत्तणि फरिसणस्स दूइत्तु एह पयडइ अवस्स।
लोलत्तकरणि रसणह सहाय इय न कुणइ कित्तिय पहु ! अवाय ॥ २४ ॥
जिव सवणु सुणइ विडवग्ग वयण तिव मुणि-उवएसु न रुद्ध नयणु ।
तह गेय-वेस-कलि-सवण-हेउ उत्तम्मइ निच्चु वि निव्विवेउ ॥ २५ ॥
इय विसयपलक्कओ, इहु एक्केकु, इंदिउ जगडइ जग्गु सयलु।
जेसु पंच वि एयई, कयबहु खेयइं, खिल्लहिं पहु ! तसु कउ कुसलु ॥ २६ ॥
ता वियक्खणु देव ! लक्खेसु, जे इत्थ फरिसणपमुह,
पई पहाण पंच विपरिट्टिय, चवलत्तणि ते कुणहिं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org