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कुमारपालप्रतिबोधे
अवरिंदिय अणु वर मज्झ जोइ ॥ ११ ॥ नहु गम्मु अगम्मु व किं पि गणइ अब्बंभ कलुस अहिलास कुणइ । सकलत्ति वितइ महद्द वेस पररमणि गमणि पयडइ किलेस ॥ १२ ॥ सिसिरम्मि निवाय घरग्गि-सयडि घण- घुसिण- तेल- बहुवत्थ- सवडि ।
चंदण-रस- कुसुम - जलावगाह धारागिहि गिंभि महेइ नाह ! ॥ १३ ॥ पाउसि पय-पंक- पसंग तद्दु वंछइ अच्छिद भवणयलु लड्डु । जह कुणइ विविह विसयाणुवित्ति तेह वि हुन एहु पावेइ तिति ॥ १४ ॥ एक वि फासिंदिउ, बुहयण निंदिउ, करइ किंपि दुच्चरि तिहि ।
नाणा विहु जम्मि हि, पीडिओ कम्मिहि, सहसि विडंबण सामि जिह ॥ १५ ॥
तह भक्खाभक्ख विवेय- मूढुं रस-विसय- गिडि- दोलाधिरूतु । अविभावि पेयापेयवत्थु रसणु वि कुणेइ बहु-विहु अणत्थु ॥ १६ ॥ जं हरिण - ससय-संबर - वराह वणि संचरंत अकयावराह । तण-सलिलमित्त संतुट्ठ-चित्त मम्मर-रव-सवणुब्भंत नेत्त ॥ १७ ॥ हिंसंति के वि मिगया पयट्ट पसरंत - निरंतर - तुरय- घट्ट । कर - कलिय- कुंत - कोदंड - बाण संसयय- तुल-रोविय - नियय-पाण ॥ १८ ॥ जं गहिरि सलिलि वियरंत मीण निक्करुण के वि निहणहिं निहीण ।
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[ पञ्चमः
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