________________
४२५
प्रस्तावः]
जीव-मनः करणसंलाप-कथा । विविहारंभु अबंभपरु कहिं तुहं कहिं जिय रक्ख । नयण-विहूण कि हुंति नर रयण-परिक्ख सलक्ख ॥६॥
जे महन्वय पंच उव्वहहिं, तवु दुक्कर जे करहिं,
जे चरित्तु पालहिं निरुत्तउं, जीवोह-रक्षण-वयणु,
मुणिह ताहं जं पणह जुत्तउं, जं पुणु तुहु जंपेसि जड ! तं असरिसु पडिहाइ । मणन्निल्लक्खण किं सहइ नेऊरु उड्डह पाइ॥७॥
चवल चप्फल विसयवासत्त, नीसत्त अविवेय तुहुँ,
करहिं किं पि दुक्कम्मु तम्मण, पड़ जम्मु पावेमि हउं,
जव्वसेण बहु-विह-विडंबण, तो मणु भणइ गुणुत्तमह सामिहि तुज्झ पसाई । गरुय मणोरह जइ कर तो वारिजउं काई॥८॥
किं च किं पहु करिविअ पसाओ, ववसाउ जंपेइ मह,
घणअणत्थ वित्थरण-पञ्चलु, जिण कारणि हउं कर
न य किं पि न हु एउ चप्फलु, जे उण पइं फरिसिण-पमुह पंच-पहाण-निउत्त । मत्त-निरंकुस-हत्थि जिम्व करिहिंति कज अजुत्त ॥९॥
तहं मज्झिम फेडिवि कुविपहाणु मइ अन्नह अप्पिउ तस्स ठाणु ।
एयाइं पलोयउ सामि सालु पयडंतई निच्चु अणत्थ-जालु ॥१०॥
फरिसिंदिउ पभणइ ह जि एछु रुंधेवि सरीरु समग्गु थक्कु ।
इह अप्फु मणुव नहि अत्थि कोइ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org