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प्रस्तावः ]
जीव-मनः-करण-संलाप-कथा । काऊण काय-सुद्धिं कुसुमामिस-थोत्त-विविह-पूयाए । पुज्जइ जिण-पडिमाओ पंचहिं दंडेहिं वंदेइ ॥ निचं पञ्चक्खाणं कुणइ जहासत्ति सत्त-गुण-निलओ। सयल-जय-लच्छि-तिलओ तिलयावसरम्मि उवविसइ ॥ करि-कंधराधिरूढो समत्त-सामंत-मंति-परियरिओ। वच्चइ जिणिंद-भवणं विहि-पुव्वं तत्थ पविसे ॥ अट्ट-प्पयार-पूयाइ पूइउं वीयराय-पडिमाओ। पणमइ महि-निहिय-सिरो थुणइ पवित्तेहिं थोत्तेहिं ॥ गुरु-हेमचंद-चलणे चंदण-कप्पूर-कणय-कमलेहिं । संपूईऊण पणमइ पचक्खाणं पयासेइ ॥ गुरु-पुरओ उवविसिउं पर-लोय-सुहावहं सुणइ धम्मं । । गंतूण गिहं वियरइ जणस्स विन्नित्तियावसरं ॥ विहियग्ग-कूर-थालो पुणो वि घर-चेइयाइं अच्चेइ । कय-उचिय-संविभागो भुंजेइ पवित्तमाहारं ॥ भुत्तुत्तरं सहाए वियारए सह बुहेहिं सत्थत्थं । [ अत्थानी-मंडव-मंडणम्मि सिंहासणे ठाइ ॥ अट्ठमि-चउसि-वजं पुणो वि मुंजइ दिणहमे भागे। कुसुमाइएहिं घर-चेइयाइं अच्चेइ संझाए ॥]
एवं खु पुन्न-निहिणो गर्मति कालं सु-चरिएहिं ॥
कइया वि निव-निउत्तो कहइ कहं सिद्धवाल-कई ॥
कुमइ खुइ जं सुणताहं आवइ पाव-मलु,
अइ-विसुद्ध-वासण विसइ, ओहद्दइ मोह-विसु, विसमु विसय-वासंगु तुइ,
१ [ ] एतचिह्नान्तर्गतः सार्धगाथात्मकः पाठो मूलग्रन्थे त्रुटितोऽस्ति, परन्तु जिनमण्डनगणि-विरचिते कुमारपाल-प्रबन्धे समुपलब्धत्वात् तत उद्धृत्य निवेसितोत्रायमस्माभिरिति।
२-३अत्रापि कियान् पाठः खण्डित इव प्रतिभाति सम्बद्धार्थस्यानवगमकत्वात् ।
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