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प्रस्तावः ]
लोभविपाके सागर-कथा ।
४२१
कस्स वि न कहिस्सामि त्ति जंपियं तेण, अन्नया सिट्ठी । मंजूसाए मज्झे छन्नं निसि पविसिऊण ठिओ॥ निम्मिय-मयणाहिविलेवणाउ परिहिय-पसत्थ-वत्थाओ। रयणमय-भूसणाओ बहूउ पगुणाउ जायाओ ॥ लहुई वुत्ता जेहाइ अज तुममुक्खिवेसु मंजूसं। सा भणइ बहिणि ! तुममारुहेसु जेणुक्विवामि इमं ॥ चडिया मंजूसाए जिट्ठा मंजूसमुक्खिवइ लहुई। दो वि चलियाउ गयणे वेगेण विलंघिउं जलहिं॥ पत्ताओ कणयपुरे पुरबाहिं ठाविऊण मंजूसं। मज्झम्मि पविट्ठाओ तो सिट्ठी निग्गओ बाहिं ॥ सो कणय-इ-खंडं जं जं पिच्छइ फुरंत-लोह-भरो। मंजूसाए मज्झे तं तं पक्खिवइ वेगेण ॥ तत्थ सयं च पविसि चिट्ठइ अह आगयाउ वहुयाओ। चलियाउ तहेव समुद्द-उवरि लहुई भणइ जेटं ॥ मंजूसाए भारो बहुओ केणाऽवि कारणेणऽज । तो जलहिम्मि खियिस्सं एयं गयणेण गच्छ तुमं ॥ तं सोउं भणियं सागरेण मा सागरम्मि मंजूसं। वहुयाउ ! खिवह जम्हा मरामि तुम्हाण ससुरोऽहं ॥ इय ससुर-वारियाहिं वि अणेण विनायमम्ह चरियं ति । रोसेण झत्ति खित्ता जलहिम्मि वहूहि मंजूसा ॥ मा डहसु गहिल ! गामं ति वारिओ संभरावियं सुट्ठ । इय भणिरो सो गामं जह दहइ तहेव ताहिं कयं ॥ मंजूसा-मज्झ-ठिओ य सागरो सागरम्मि दुक्खेण । मरिऊण गओ कु-गई तत्तो भव-सागरं भमिही ॥ वहुयाउ आगयाओ स-गिहं गोसे अपिच्छिउं पियरं । चंदो जंपइ जणओ कत्थ गओ दीसए जन्नो ॥ तो जाणगेण सव्वं वुत्तंतं अक्खिऊण चंदस्स। भणियमिणं मंजूसा जं नत्थि तओ वियकेमि ॥ सिट्ठी इमाहिं खित्तो मंजूसाए समं समुद्दम्मि । तं सोऊण विसन्नो आढत्तो विलविङ चंदो ।
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