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कुमारपालप्रतिबोधे
तस्सत्थि सुन्न मज्झा गरुई गेहंगणम्मि मंजूसा । गयण-गमण-क्खमाओ चंदस्स वि दुन्नि भज्जाओ ॥ तासिं एक्का मंजूसमारुहद्द वहइ तं पुणो बीया । तो कीलणत्थमन्नत्थ दो वि वच्चंति रयणीए ॥ कइया वि सागरेणं इमं कुणंतीउ ताउ दिट्ठाओ । चरियं अहो ! वहूणं इमं ति सो विम्हियं पत्तो ॥ वृत्तंतमिणं कहिउं एगते भणइ सागरो भिच्चं । जाणग ! मंजूसाए चिट्ठ तुमं पविसिओ छन्नो ।। तो वच्चति इमाओ कत्थ त्तिवियाणिऊण मे कहसु । तेावि तव कयं रयणीए ताउ चलियाओ ॥ गच्छंतीणं तासि उवरि समुद्दो मणो-हरं रुवं । उच्छलिय-मच्छ अच्छीहि छज्जए पिच्छमाणो व्व ॥ सो त सण- तुट्ठो सहइ सहासो व्व फेण-पडलेण । लहरीइ ताण परिरंभणत्थमुत्तंभिय-भुओ व्व ॥ जल - निहि- मज्झट्ठिय-रयण- -दीव - तिलए गयाउ कणयपुरे । ताओ तहिं इच्छाए रमिउं पुण आगयाउ गिहं ॥
अह भणिओ कम्मयरेण सागरो सिद्धि ! सुण रयणि वित्तं । तुह बहुयाओ कत्थ व नयरम्मि गयाउ गयणेण ॥
पुर-बाहिं मंजूसिं मुत्तुं पत्ताउ ताउ मज्झम्मि । तत्तो मंजूसाओ मए मुहं कड्डियं किं पि ॥ तो दिट्ठा पसरिय-कंति -भासुरा तत्थ रयण- पासाया । सुर-पव्वओ व लुंगो तह पायारो पिसंडिमओ ॥ पायार - समीवे काय - इह खंडाई तह य दिट्ठाई । कंतीए हुरंतीए तमेव लक्खिज्ज नाणाई || बहुयाण भएणाऽहं मंजूसाओ न निग्गओ बाहिं । तत्तो धित्तुमणेण वि ताई न गहियाई सिट्टि ! मए ॥ तो सागरेण भणियं अहो ! किलीवो सि जाणग ! हयास !! । जेण न गहियाई तए कइ वि कणय इह खंडाई ॥ ता अन्नस्स न एयं कहियव्वं जेण तत्थ गंतॄण । सयमेव अहं आणेमि ताण भरिऊण मंजूसं ॥
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[ पञ्चमः
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