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प्रस्तावः]
लोभविपाके सागर-कथा। दीवंतर-जुग्गाई किणियाई कयाणगाइं विविहाइं। कण-घय-तिल्ल-जलिंधण-पमुहाणं संगहो विहिओ ॥ दा..........."वि-कर-सुकाण कोत्थला भरिया । सत्थग्गि-तिल्ल-कंजिय जोहा गहिया य जुद्धत्थं ॥ अह पिल्लियं पवहणं वजंताउज-रव-भरिय-भुवर्ण । तत्थ कय-मंगलो परियणेण सह सागरो चडिओ ॥ पवणुप्पाडिय-सिय-वड-जणिय-जवं जाव तं कमइ जलहिं। तो छ-प्पड व्व कमले गयणे लहुओ घणो जाओ॥ सो कमसो वित्थरिओ कसिण-करालो कयंत-महिसो व्व । फुरिया दिसासु जम-कत्तिय व्व दुईसणा विज्जू ॥ जाओ गज्जो बंभंड-भंड-फुद्दण-रवो व्व भय-हेऊ । लद्धावसरो पिसुणो व्व दूसहो पसरिओ पवणो॥ पीय-सुरो व्व विसंठुल-पय-प्पयारो महोयही जाओ। फुट्ट तओ पवहणं पडियं उद्दाउ भंडं च ॥ अह सागरेण लडं फलयं पिय-माणुसं व हियएण । घित्तूण तं समुद्दे सो भमिओ सत्त-दियहाई॥ पत्तो कहं पि तीरे सो दिट्ठो निद्दएहिं मिच्छेहिं । पावंति लोह-विवसा जं वसणुत्तिरिविडिं जीवा ॥ सो नीओ निय-ठाणं भुजं भोयाविओ य पुटि-करं । तो तेण चिंतियमिणं किमिमे[मम]भोयणं दिति ॥ अन्नदियहिम्मि एसो सव्वंगं पिच्छिऊण मिच्छेहिं ।
नीहरिय-रुहिर-धारो निवेसिओ बाहिर-पएसे ॥ तस्सादूरम्मि ठिओ चावारोविय-सरो नरो य पच्छन्नं(?)। तो सागरंग-लुद्धो पक्खि-विसेसो तहिं पत्तो ॥ तं गिण्हंतो पक्खी नरेण विडो महल्ल-भल्लीए । सो तप्पहार-विहुरो धरणीए नियडिऊण मओ ॥ करि-कुंभ-यडम्मि व मुत्तियाई हिययम्मि तस्स रयणाई।
चिट्ठति तं छुरीए छिउँ मिच्छेहिं गहियाई॥ ४ अत्र कियान् पाठस्त्रुटितः प्रतीयते ।
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