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प्रस्तावः]
मायायां नागिनी-कथा ।
४१३
सा घरिणि-दसणत्थं पट्टविया राय-पुत्तेण ।। अमणहर त्ति न गहिया तीए तो पेसिया पुणो अन्ना । सा वि न गहिया तीए दु-तिन्नि-वारं कयं एवं ॥ सिट्ठी जंपइ स चिय इह एउ किमन्न-पाय-घसणेण । तत्तो समागया सा तं दृ8 सेट्टिणा भणियं ॥ एसा सा मह धूया राय-सुओ भणइ किं न संभरसि । किं धूयमग्गि-दडूं किं सिहि ! सिणेह-गहिलो सि ?॥ सिट्ठी जंपइ सरिसत्तणेण मूढो म्हि भणइ राय-सुओ। सिट्टि ! न दोसो तुह जेण सरिस-वत्थूसु होइ भमो॥ सरिसत्तणओ जाओ आइच्च-हरे भमो तया मज्झ । जेण मए तह धूया छिक्का निय-घरिणि-बुद्धीए ॥ संपइ पुण संपन्नो तुज्झ भमो जो तुमं मह कलत्तं । निय-धूयं भणसि अओ भमेण दुन्नि वि समा अम्हे ॥ सिट्ठी जंपइ धूया-सरिसा एसा वि मज्झ धूय त्ति । ता तुज्झ जेण कजं तं गिण्हसु मह सयासाओ ।। इय इत्थीणं चरियं गहणं निउणो वि नाह ! न मुणेइ । तत्तो जंपइ नागो पिच्छिस्समहं घरिणि-चरियं ॥ अह दिसि-जत्तारंभं काउं नागेण नागिणी वुत्ता। जामि पिए ! देसंतरमहं तुमं चिट्ठ गेहम्मि । सा भणइ तुज्झ विरहे अ-रइ-करं मह घरं मसाणं व । किं तु अजुत्तं पिय-वयण-लंघणं तेण चिहामि ॥ सो पत्थिओ पसत्थे दिणम्मि गंतुण जोयणे कइ वि। देसंतरे धणत्थं पट्टविरं वाणियं अन्नं ॥ नागो सयं नियत्तो चिट्ठह गणिया-गिहे पविसिऊण । कइयाइ निसाए गओ स-गिहं कप्पडिय-वेसेण ॥ तं भणइ नागिणी किं देसंतरिओ सि ? सो भणइ एवं । सा भणइ कुणसि कजं जइ मे ता रूवयं देमि ॥ तेणुत्तं तुह कजं काहं सा भणइ पडलयं एयं। गिण्हसु इमिणा गहियं तेण समं सा गया बाहिं ॥ तत्थत्थि सूलि-भिन्नो पुरिसो गरुए कहिं पि अवराहे ।
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