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कुमारपाल प्रतिबोधे
मुणिणो नमिऊण कमे कयंजली सा ठिया पुरओ ॥ तो पारिऊण पडिमं भणियं समणेण वच्छ ! गेहाओ । तइ निक्खते खेओ संजाओ मह अणक्खेओ ॥ तुह विरहेण मणं मे कत्थ वि वत्थुम्मि रइमलभमाणं । पत्थिव-पओयणेसु वि कमेण मंदायरं जायं ॥ अन्न- दिणे उज्जाणं गएण दिट्ठो मए मुणी इक्को । तं भत्तीए नमिउं उवविट्ठो तस्स पुरओऽहं ॥ तेण भणियं किमेयं सुय-कज्जे खिज्जसे जओ भद्द ! | हुंते वि सुए न गुणो न को वि अगुणो अहुतमि ॥ पुव्व-कय-सुकय-वसओ जीवो सुहिओ हविज इह लोए । इह भव-सुकणं पुण परलोए पावए सुक्खं ॥ पुत्ताण अभावम्मि वि सुहिणो दीसंति के वि सुकय-वसा । हंतेसु वि तेसु परे न सुहं पावंति पाव- हया ॥ ता मुत्तं सुय- सोयं जिण भणियं धम्ममिकमायरसु । जो पर - जम्म- सहाओ होउं जीवस्स कुणइ सुहं ॥ ताऽहं विसय- विरत्तो पडिवन्नो संजमं गुरु- समीये । मह तिव्व-तव-भावेणं ओहि नाणं समुप्पन्नं ॥ तुज्झ पडिबोह - समयं मुणिऊण इहागओ अहं एसो । तो गोधणेण वृत्तं भयवं ! हा पाव-कम्मोऽहं ॥ एवं विडंबणं जो मएण पत्तोऽम्हि जंपियं मुणिणा । थेवा इमा पुरा भव- अणुभूय- विडंबणाहिंतो ॥ जओ
जाओ सि खरो सुणहो कोलो छागो कमेलगो मूओ । जाइ - कुलाइ - मयाओ संकर-जम्मम्मि विहियाओ ॥ ता गोधणेण भणियं भयवं ! कह मे अणुग्रहं काउं । पत्तं मए कहमिणं मुणिणा भणियं सुणसु वच्छ ! ॥ इह आसि कासि - नयरी-वत्थव्वो संकरो वर - गिहत्थो । सुह-जाइ - कुलुप्पन्नो रूव - कला - विहव-संपन्नो || मज्झ विसुद्धा जाई गरुयं पुत्तं मणोहरं रूवं । परमं कला-कलावे कोसलमतुल्लमीसरियं ॥
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[ पञ्चमः
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