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________________ ३७८ [चतुर्थः कुमारपालप्रतिबोधे जायाई कित्तियाइं पहु ! संपइ दुन्निमित्ताई॥ तव्वसओ लोयाणं होही जं खास-सास-पमुहेहिं । रोगेहिं महापीड त्ति देव ! संभावयामि अहं ॥ रन्ना भणियं कित्तिय-दिणाई होही इमा पीडा । वुत्तं निमित्तिणा मयण-तेरिसिं जाव न हु पुरओ ॥ किं कायव्वं इहि अज वि सा मयण-तेरिसी दूरे । होही अणेग-लोग-क्खओत्ति खिन्नो दढं राया। करुणा-परेण रन्ना मंती जयसुंदरो इमं भणिओ। सोहसु किं पि उवायं जणस्स कुसलं हवइ जेण ॥ तो भणियममच्चेणं इमस्स पक्खस्स तेरसीए वि। नयरम्नि मयण-तेरसि-महूसवं देव ! कारवसु॥ जेण दुनिमित्त-सीमा-घडणेण जणस्स होइ कल्लाणं । रन्ना भणिओ मंती जुत्तमिणं जंपियं तुमए॥ तो मयण-तेरसिमहो नयरे घोसाविओ अकाले वि। पारडा रिडीए मयरद्धय-मंदिरे जत्ता ॥ तो तरुणी-घटाई कय-चचरि-चारु-गाण-नहाइं। घण-रूव-मरटाइं वणम्मि गंतुं पवटाई॥ निक्खंता रह-कुंजर-तुरंग-जंपाण-वाहणाऽऽरूढा । रयणा-ऽलंकार-पसत्थ-वत्थ-पवरा पुर-जुवाणा ॥ पवणंजओ धणंजय-सिठि-सुओ तं महूसर्व दट्टे । रहमारुहिउं चलिओ किंकर-नर-नियर-परियरिओ॥ पत्तस्स गोउरं तस्स रहवरो लग्गिऊण पडिखलिओ। अभिमुहर्मितेणं दिन्न-सिटि-सुय-सागर-रहेण ॥ पवणंजएण भणियं अरे ! ठिओ रंभिऊण रह-मग्गं । को एसो निययरई परियत्तिय वच्चए कि न ॥ तो सागरेण भणियं अरे ! परावत्तिऊण नियय-रहं । किं वचिस्सामि अहं किं न कुणसि वच्चसे एवं ॥ किं अप्पाणं केणावि भद्द ! चागाइणा गुणेण तुमं । जेटं ममाउ मन्नसि जं एवं जंपसि सदप्पं ॥ एवं परोप्परं कोव-निन्भरं ताण उल्लवंताणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001873
Book TitleKumarpal Pratibodh
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorJinvijay
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages564
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size11 MB
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