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[चतुर्थः
कुमारपालप्रतिबोधे जं दुग्धडं पि वत्थु घडइ चिय दिव्वमणुकूलं ॥ एवं कमलामेलं बुज्झवियं नारयेण आगंतुं । कहियं सागरचंदस्स सा तुम इच्छइ मयच्छी ॥ पुव्वं पि तप्पउत्तिं सोउं सो आसि तीए अणुरत्तो। सा तुममिच्छइ बाला इ कहिए ढयरं जाओ ॥ तं चिय चिंतइ चित्ते सो तं चिय चित्त-पट्टए लिहइ । तं चिय जंपइ जीहाइ नियइ सुविणे वि तं चेव ॥ जइ हुज्ज अहं खयरो खगो व्व तो उड्डिऊण सहस त्ति । पिच्छामि मुहं तीए इय संकप्पे कुणइ कुमरो ॥ सो मिल्लइ नीसाले दीहुण्हे जेहिं आहया संता। मलिण-मुहा संजाया नूणं पास-ट्ठिया मित्ता॥ सो तस्स समुल्लसिओ संतावो जत्थ सलिल-पसईए । खित्ताउ तक्खणेणं छणंति सूसंति सुन्नंगे ॥ चंदण-चंद-जलद्दा कयलीदल-पवण-कुसुम-सिजाओ। न हरंति देह-दाहं विरहानल-संभवं तस्स ॥ रज्जइ न गीय-नट्टाइएमु न कुणइ सरीर-सकारं । न पयइ कीलासुं सा नाऽऽहारं पि अहिलसइ॥ मुच्छा-मीलिय-नयणो पुणरुत्तं सो महीइ निवडतो। सिसिरो-वयार-करणे ण कह वि पावेइ चेयन्नं ॥ पसयच्छि ! पसीयसु देसु दंसणं किं करेसि मह कोवं । खम इकं अवराहं इय जंपइ सो असंबद्धं ॥ कज्जाऽकज-हियाऽहिय-उचिया-ऽणुचियाइ-वत्थु-परमत्थं । न मुणइ कि पि कुमारो सुन्न-मणो मज-मत्तो व्व ॥ दहूण तारिसं तं सुहिं सयहिं विभावियं एयं । मयणस्स दसं नवमिं संपत्तो संपयं एसो ॥ जइ पुण दसमि दसं पि वचिस्सइ ता धुवं इमो मरिही। इय चिंता अकंता ते सव्वे आउली-भूया ॥ इत्थंतरम्मि तत्थाऽऽगएण संबेण पट्टओ होउं । केलीइ ढकियं निय-करेहिं कुमरस्स अच्छि-जुयं ॥ कमलामेले ! मिल्लसु नयण-जुयं मे चगोर-मिहुणं व ।
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