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सामायिकत्रते सागरचंद्र - कथा |
जा वयणेण विरायह सारय- पुन्निम-निस व्व चंद्रेण । अहरेण सहइ जा विद्दुमेण जलरासि-वेल व्व ॥ छज्जइ अच्छि च्छोहेहिं जा तिरिच्छेहिं कामदेवरस | उच्छलिर-मच्छ- रिंछोलि- छाइया केलि-सरिसि व्व ॥ थल-कमलिणि व्व चलणेहिं सोहए जा सहाव-रत्तेहिं । जंगम-लय व्व जा पल्लवेहिं लक्खिज्जइ करेहिं ॥ तं सोऊण कुमारेण मयण-सर-सल्लिएण संलत्तं । किं सा कस्स दिन्नाऽदिन्न त्ति निवेइयं मुणिणा ॥ भणियं कुमरेण कहं तीए सह होज संपओगो मे । न मुणामित्ति भणित्ता तियसरिसी गयणमुप्पइओ ॥ पत्तो कमलामेलाए अंतियं तीइ विहिय-सक्कारो । सो पुच्छिओ य तीए दिहं अच्छेरयं किं पि ॥ तो नारयेण वृत्तं बारवईए इहेव नगरीए । नव-पंकयच्छि ! अच्छेरयाई दिट्ठाई दुन्नि मए ॥ एकं सागरचंदो सुरूव-चूडामणी गुणिक्क-निही । बीयं पुण नहसेणो कुरूव-सीमा अणत्थ-गिहं ॥ इय सोउं सा बाला सागरचंदम्मि गाढमणुरत्ता । नहसेणे उविरत्ता महाविसं जेण कन्न- विसं ॥ सा जंपिउं पवत्ता वाह-जलुप्पील- तीमिय-कवोला । भयवं ! अहं अहन्ना जायं मह जीवियं विहलं ॥ दिन्नाऽहं नहसेणस्स तस्स जणएण वेरिणा जइ वि । तह विन तं परिणस्सं किं तु मरणं करिस्सामि ॥ जं पुण मणमणुरत्तं सागरचंदम्मि मज्झ तमजुत्तं । जं पुन्न- विहीणाणं सिज्झति मणोरहा कत्तो ? ॥ जओ
प्रस्तावः ]
जं
मूढह माणुसह वंछइ दुल्लह वत्थु |
तं ससि-मंडल- गहण किहिं गयणि पसारइ हत्थु ॥ सा नारएण वृत्ता भव धीरा मा करेसु संतावं । जं सो सागरचंदो तइ तिव्वं वहइ अणुरायं ॥ तेण सह संपओगो कह मे होज ति मा वियप्पेसु ।
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