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प्रस्ताव: ]
परिग्रहपरिमाणे हरिविक्रम-कथा |
जं इमिणा सह जुद्धं पारद्धं तं मए कयभजुत्तं । जो अप्प-पर-विसेसं न मुणइ सो होइ हसणिजो ॥ हा दंसिउं असक्को जणस्स वयणं अहं अजस - कसं । ता किं करेमि संपइ हुं नायं जामि वण- वासं ॥ तो हरिविक्कम-पुरओ आगंतुं गिन्ह मज्झ रजमिणं । इय भणिउं वन- वासं संपत्तो चंडसेण- निवो ॥ हरिविक्कमो सिरिउरं गंतॄण करेइ तत्थ रज्ज - ठिइं । अह पुरिसा कुसुमपुराउ आगया जणय-पट्टविया ॥ वच्छ ! अहं तुह विरहे दुहं ठिओ संपयं गिलाणोम्हि । ता निय-रज्जं गिन्हसु इमं ति पुरिसेहिं विन्नन्तं ॥ तो तत्थ रज्ज-सुत्थं काउं हरिविक्कमो जणय- पासं । चलिओ चउरंग चमूचमढिय- फणिराय - फणचक्को ॥ सो पत्तो कुसुमपुरं पणओ जणयस्स तेण अहिसित्तो । रजे गुरु-रिडीए अह पर - लोयं गओ जणओ ॥ सो भूरि कणय - कोसं पयाव- पडिहय-पयंड- पडिवक्खं । करि- - तुरय-रह- समग्गं तिवग्ग सारं कुणइ रज्जं ॥ अह अन्नया निसाए पच्छिम - जामम्मि सुह-विउद्धस्स । जाया रन्नो चिंता पुव्व-भवे किं मए विहियं ॥ जं रज्जाण चउन्हं इमाण सामित्तमुत्तमं पत्तं । इय चिंतं कुणमाणस्स निवइणो उग्गओ सूरो ॥ उज्जाण - वालएणं विन्नत्तं ताव देव ! उज्जाणे । सुर-कय-कमल- निसन्नो केवल नाणी कहइ धम्मं ॥ तो परितुट्टो राया जयलच्छी-संगओ गओ तत्थ । नमिरं गुरुं निसन्नो धम्मक सोउमादत्तो ॥ समए पुट्ठे रन्ना निसाइ जं चिंतियं चरम- आमे । केवलिणा भणियं सुण नरिंद ! जं पुच्छियं तुमए ॥ पुव्व भवे आसि तुमं सिरिनयर - पुरम्मि भावगो नागो । नागसिरि से भज्जा दुण्हवि नेहेण जंति दिना ॥ अन्न- दियहम्मि तेसिं पुरओ पुरिसेण भणियमेक्केण । जं अच्छरियं वित्तं इहेव नयरश्मि तं सुणह ॥
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