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[चतुर्थः
कुमारपालप्रतिबोधे सुरनरसुखं भुक्त्वा भूयः परत्र विकल्मषः शिवपदपुरीसाम्राज्यं स क्रमेण करिष्यति ।।
इति मृषावादविरतौ मकरध्वजकथा ।
जं चोरं कारकरस्स खत्त-खणणाइणा पर-धणस्स। दुविह-तिविहेण-वजणमणुव्वयं बिंति तं तइयं ॥ जो न हरइ पर-व्वं इहावि सो लहइ न वह-बंधाई। पर-लोए पुण पावइ सुर-नर-रिद्धीओ विउलाओ॥ एकस्स चेव दुवं मारिजंतस्स होइ खणमेकं ।। जावजीवं सकुडुंबयस्स पुरिसस्स धण-हरणे ॥ दव्वं परस्स बझं जीयं जो हरइ तेण सो हणिओ।
व्व-विगमे जओ जीयमंतरंगं पि जाइ खयं ॥ जं खत्त-खणण-बंद-ग्गहाइ-विहिणा परस्स घण-हरणं । पच्चक्व-दिट्ठ-दोसं तं चिट्ठउ दूरओ ताव ॥ पर-वंचणेण घेत्तुं दितस्स वि पर-धणं पर-भवम्मि । पर-गेहे चिय वञ्चइ दत्तस्स व वणिय-पुत्तस्स ॥ तं जहा
अस्थि सुर-भवण-सिहरग्ग-लग्ग-दिणयर-रह-तुरय-मग्गं । पुरमित्थ पइट्ठाणं लोउत्तर-संपया-हाणं ॥ तत्थ पयावसीहो निवो पयावानलो नवो जस्स। रिउ-रमणि-नयण-नीर-प्पवाह-सेत्तो वि पजलइ ॥ चिटुंति तत्थ विच्छिन्न-रित्थ-कुल-संभवा वणिय-पुत्ता। अन्नोन्न-नेह-जुत्ता दत्तो संखायणो य दुवे ॥ देसंतराइं गंतुं धणजणं जुव्वणे न जो कुणइ । किं कूव-द(रस्स व तस्स पसंसिजए जीयं ॥ इय मंतिऊण दुन्निवि परोप्परं निग्गया निय-पुराओ। महिमंडले भमंता कमेण पत्ता रयणदिवं ॥ रयणाई तत्थ संखायणेण पत्ताइं न उण दत्तेण । पुरिसस्स हि पुव्व-कयं सुकयं चिय फलइ सव्वत्थ ॥
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