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अह वागरियं गुरुणा जीव दयं धम्ममिच्छमाणेण । सिव- मंदिर - निस्सेणी विरई पुरिसेण कायव्वा ॥ सव्वेंदिय-वसगाणं समत्त पावासवानियत्ताणं । जं अविरयाण जीवाण कहवि न वहइ जीव-दया ॥
11 30 11 अथ चतुर्थः प्रस्तावः ।
( जं अविरयाण कहमवि वह सम्मं न जीव-दया || पाठान्तरम् । ) जइ कहवि सव्व - विरई मुणि-धम्म-सरूवमक्खमो काउं । ता देओवि विरइं गिहत्थ - धम्मोचियं कुज्जा ॥ पुव्व-परिक्कम्मिय-चित्त- कम्म जग्गा जहा भवे भित्ती । तह विहि-देस - विरई काउमलं सव्व-विरहं पि ॥ भणियं च
एसा विदेस - विरई सेविज्जइ सव्व-विरइ-कज्जेण । पायमिमीए परिकम्मियाण इयरा थिरा होइ ॥ पंच अणु-व्वयाई गुण-व्वयाइं हवंति तिन्नेव । सिक्खा क्याइँ चत्तारि देस - विरई दुवालसहा ॥ संकष्प - पुव्वयं जं तसाण जीवाण निरवराहाण । दुविह-तिविहेण रक्खणमणुव्वयं बिंति तं पढमं ॥ चिर-जीवी वर - रूवो नीरोगो सयल- लोग-मण- इट्ठो । सो होइ सुगइ - गामी सिवो व्व जो रक्खए जीवे ॥ तं जहा
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अस्थि नयरी विभा दिय-मंदिर-दिस्समाण- घणद्भा । विविह-मणि- खंड - मंडिय- पिसंडि-पासाय- संभा ॥ सुंदर-कर-कय-हरिसो हरिसेणो तत्थ पत्थिवो अत्थि । जस्स परवारणस्स वि चोजं न मओ समुल्लसिओ ॥ कमल त्ति तस्स देवी मुहेण जीए जियाई कमलाई । नूणं लज्जताई जलस्स मज्झे निलुकाई ॥
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