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प्रस्तावः
भावनायां जयवर्म-विजयवर्म-कथा ।
३११
राया वि सोमवम्मं जयावली-गब्भ-संभवं पुत्तं । ठविउं रजे संवेग-परिगओ गिण्हए दिक्खं ॥ कय-तिव्व-तवचरणा निचं वेरग्ग-भावणा-पवणा। उपन्न-केवला दो वि बंधवा सिव-सुहं पत्ता ॥
इति भावनायां जयवर्म-विजयवर्म-कथा ॥
अह पुच्छइ कुमर-नराहिराउ, मण-मक्कड-नियमण-संकलाउ ।
कह कीरहि बारह भावणाउ, तो अक्खइ गुरु घण-गहिर-नाउ ॥ तं जहाचलु जीविउ जुव्वणु धणु सरीरु, जिम्ब कमल-दलग्ग-विलग्गु नीरु । अहवा इहत्थि जं किं पि वत्थु, तं सव्वु अणिचु हहा धिरत्थु ॥ पिइ माय भाय सुकलत्तु पुत्तु, पहु परियणु मित्तु सिणेह-जुत्तु । पहवंतु न रक्खइ कोवि मरणु, विणु धमह अन्नु न अस्थि सरणु ॥ राया वि रंकु सयणो वि सत्तु, जणओ वि तणउ जणणि वि कलत्तु । इह होइ नडु व्व कुकम्मवंतु, संसार-रंगि बहुरूवु जंतु ॥ एकल्लउ पावइ जीवु जम्मु, एकल्लउ मरइ विडत्त-कम्म। एकल्लउ परभवि सहइ दुक्खु, एकलउ धम्मिण लहइ मुक्खु ॥ जहिं जीवह एउ वि अन्नु देहु, तहिं किं न अन्नु धणु सयणु गेहु। जं पुण अणन्नु तं एक्क-चित्तु, अजेसु नाणु दंसणु चरित्तु ॥ वस-मस-रुहिर-चम्मटि-बद्ध, नव-छिड्ड-झरंत-मलावणद्ध । असुइ-स्सरूव-नर-थी-सरीर, सुइ बुद्धि कहवि मा कुणसुधीर ॥ मिच्छत्त-जोग-अविरइ-पमाय, मय-कोह-लोह-माया-कसाय। पावासव सव्वि इमे मुणेहि, जइ महसि मोक्खु ता संवरेहि ॥ जह मंदिरि रेणु तलाइ वारि, पविसइ न किंचि ढक्किय दुवारि । पिहियासवि जीवि तहा न पावु, इय जिणिहि कहिउ संवरु पहावु ॥ परवसु अनाणु जं दुहु सहेइ, तं जीयु कम्मु तणु निजरेइ । जो सहइ सवसु पुण नाणवंतु, निजरइ जिइंदिउ सो अणंतु ॥ जहिं जम्मणु मरणु न जीवि पत्तु, तं नत्थि ठाणु वालग्ग-मत्तु । उड्डाहो-चउदस-रज-लोगि, इय चिंतसु निच्चु सुओवओगि ॥ सुह-कम्म-निओगिण कहवि लड्डु, बहु पावु करेविणुपुण विरुष्ड्ड ।
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