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कुमारपालप्रतिबोधे
[तृतीयः न हु सकेमि अहं पुण पयाओ मुत्तं अणाहाओ॥ काऊण रज-सुत्थं कमेण दिक्खं अहं पि गिहिस्सं । तो भाव-जइ व्व ठिओ जयवम्मो गेहवासे वि ॥ इयरो पुण पव्वहओ गुरु-पय-मूलंमि गरुय-रिडीए। अहिगय-समत्त-सुत्तो निरवजं कुणइ पव्वजं ॥ आगम-विहिणा कइयावि नगर-गामागरेसु विहरंतो । सो रयणसंचयपुरे समागओ गुरु-अणुन्नाओ॥ नगरासन्नुजाणे वसहिं सो गिहिउं ठिओ तत्थ । तन्नमणत्थं देवी-समन्निओ आगओ राया ॥ कहिओ जिणिंद-धम्मो निबंधणं सग्ग-मुक्ख-सुक्खाणं । परिणाम-दारुणत्तं विसयाण परूवियं मुणिणा ॥ संविग्ग-मणा देवी जयावली गिण्हए नियममेवं । एयं मुणिं इह द्वियमहं अदटुं न भुंजेमि ॥ मुणि-निच्च-पज्जुवासण-पराइ तीए दिणाई वचंति । अन्नदिणे उक्किट्टा वुट्ठी जाया उवरि-भागे ॥ नयरस्स काणणस्स य अत्थि नई अंतरा महावेगा। सा उवरि-वुहि-सलिलेण दुत्तरा झत्ति संपन्ना ॥ मुणिणो नमसणत्थं न गया देवी न भुंजए तत्तो। लुपंति न निय-नियमं मरणे वि हु जं महासत्ता ॥ रन्ना भणिया देवी अज तुमं किं न भोयणं कुणसि । तीए य निय-पइन्ना निवेइया भूमि-नाहस्स ॥ राया भणइ न नजइ कम्नि दिणे विरमिही नई एसा । सूमाल त्ति तुमं पुण अभोयणे पाविहिसि कहूँ ॥ ता वच्च जंपसु नई मह देवर-दिक्ख-गहणओ पभिई । जइ मज्झ पिययमेणं विसय-सुहासेवणं विहियं ॥ ता भयवइ ! मा विरमसु अह न कयं देहि मज्झ तो मग्गं । हसिऊण भणइ देवी किमसंबडं भणसि देव ! ॥ तुममेवं जंपतो नाह ! चिरं सेविउं विसय-सुक्खं । अचलत्त-कलिंगगमो दिओ व्व अच्चंत-साहसिओ ॥ रन्ना वुत्तं मुत्तुं कुवियप्पे देवि ! गच्छ कुरु भणियं । देवी भणइ किमेवं अवलवसि कयं विसय-सेवं ॥
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