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३०२
कुमारपालप्रतिबोधे
[तृतीयः
सव्वेसिमुवखित्ती किमसज्झं मह-पगरिसस्स ॥ तं भणइ पुणो वि नडो निय-सिक्खं पयडिउं बहु सुवन्न । विढवसु तुमं विवाहं करेमि रिद्धीइ तुह जेण ॥ तो विनाय-नड-नयरे नड-पेच्छं मग्गिओ निवो तेण । संपत्ता नागरया निवो निविट्ठो स-देवीओ॥ तो कुणइ इलापुत्तो पेक्वणयं जणय-जणमणच्छेरं । राया नड-धूयाए स्वाइ-गुणेहिं अक्खित्तो ॥ हंतुमिलापुत्तं भणइ भद्द ! भो ! कुणसु वंस-पडणं ति । तो रंग-भूमि-निक्खय-वंसग्गे ठावियं फलयं ॥ पासेसु दोसु कीला तस्स कया तत्थ सो समारूढो । पाएसु पाउआओ सच्छिद्दाओ परिहिऊण ॥ असि-फलय-वग्ग-हत्थो अग्गद्धे सत्त सत्त पच्छ । करणाई कुणइ गयणे उप्पयमाणो इलापुत्तो॥ छिद्देसु कीलए सो पवेसिउं जाव चिहए उद्धो। ता रजिओ पुर-जणो जंपेइ अहो महच्छरियं ॥ अन्नस्स नथि सत्ती इम त्ति सो व्वमिच्छए दाउं । किं तु निवम्मि अदिते न देइ एयरस किंचि जणो ॥ राया उ चिंतइ इमं इमाउ ठाणाउ कहवि जइ एसो। पडिऊण मरइ ता होज नहिया मे इमा भन्ना॥ तो भणइ निवो न मए तुह विन्नाणं निरूवियं सम्मं । ता कुणसु पुणो वि इमं तेण कयं तं दुइय-वारं ॥ तुट्ठो य जणो बाढं गय-लज्जो जंपइ पुणो राया। न मए सम्म दिदं ता पयडसु पुण वि विन्नाणं ॥ तं तेण तइय-वारं कयं निवो तहवि देइ न हु किंचि । अहह ! अजुत्तमजुत्तं ति कुणइ हाहारवं लोओ॥ लक्खेइ लंखियाखित्त-माणसं खिइवई इलापुत्तो। तो चिंतिउं पवत्तो घिडी ! विसयाण विसमत्तं ॥ जेणेस निवो रंगो व जीवियाए इमीइ अणुरत्तो। मम मरण-निमित्तं कारवेइ करणाइं पुणरत्तं ॥ संते वि रूव-लावन्न-कंतिमंते महंत-सुद्धते ।
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