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पतिभक्तौ जयसुन्दरी- कथा |
कक्कोली- कुवली - लवंग-लवली-नोमालिया- मालई सग्गासोय- तमाल-ताल- तिलया रेहति निडा दुमा || तत्थ, तेहिं दिट्ठा असोय-तरु-तले चंदलेह व्व तारिया - नियर - परियरिया निय - सही - सहिया कन्नगा । तं सुइरं निव्वत्तिऊण भणियं सुंदरेण - ardण इमीए निज्जियाइँ जं पंकयाइँ वियसंति । तं जल - संसग्ग कयं मूढत्तं फुरइ ताण धुवं ॥ सा वि कय-मयण- पडिमा पूया दहूण सुंदरं भणइ | सहि ! संपइ पच्चक्खं मयणमिणं किमहमचेमि ? ॥ जंपर सही अणंगो सो सुव्वइ एस पुण पहाणंगो । सा भइ इमो सक्को ?, भणइ सही सो वियवित्तो ॥ एस उवजिय-वित्तो, सा जंपइ भइणि ! को इमो तत्तो ? | विन्नाय - तव्यइयरा सत्थाह-सुओ त्ति कहइ सही || एत्यंतरंमि पुरिसो समागओ तेण जंपिया कन्ना । तुह कणय-सुंदरि ! पिया भणइ इमं गच्छ निय-गेहं ॥ सुंदर-मणं सुणतेण सणियमुवसप्पिडं जिणमुद्देण । सो पुरिसो संलत्तो एसा कन्ना सुआ कस्स ? ॥ पुरिसेण कहियमिह अस्थि कणय- कोडीसरो कणयसारो । सिट्टी तस्सेसा कणयसुंदरी नाम वर-धूया ॥ आगच्छति इमीए वरगा बहवो परं न सेट्टिस्स । को वि चहुइ चित्ते अओ इमा अपरिणीयति ॥ इय जिणमुहस्स कहिउँ गहिउँ तह कन्नगं गओ पुरिसो । तो कहह जिणमुहो सुंदरस्स कन्नाइ वृत्तंतं ॥ मयण-सर-पर-वसो भणइ सुंदरी मुक्क- दीह-नीसासो । मित्त ! इमी विरहे निय-जीयं निष्फलं मन्ने ॥ मित्तो जंपर सुंदर ! जणणी-वयणाई किं न संभरसि । किं ते गुरुवएसा चित्ताओ पवसिया सव्वे ॥ किं तुह वीसरियमिणं विसयाणं विसम-विस- विवागत्तं । कत्थ विवेगो वि गओ वयंस! जं एवमुल्लवसि ॥ वजरई सुंदरी सव्वमत्थि नहं न किं पि मह मित्त ! | न मुयइ मणं मयच्छी टंकुक्किन्न व्य किं तु इमा ॥
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