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प्रस्तावः]
पतिभक्तौ जयसुन्दरी-कथा ।
जा जिणइ नियय-रमणिजयाइ अलयाइ-नयरीओ ॥ नाय-रओ रण-चंडासि-दण्ड-खंडिय-विवक्ग्व-नायरओ। दय-दाणाइ-गुण-जुओ राया जयमेहरो तत्थ ॥ विमलमइ त्ति अमच्चो अमर-गुरु-सरिस-मइ-गुणो तस्स । वेय-वियारण-चउरो पुरोहिओ चउमुहो नाम ॥ सयल-जण-कज-जणओ धणेण धणओ धणावहो सेट्टी। कालं गति सव्वे पवन्न-पर-दार-विरइ-वया ॥ तत्थेव परत्थ-करत्थ-वित्थरो अस्थि धणवई सेट्ठी। जिणधम्म-निचल-मणो निचं जो ममइ निय-जम्मं ॥ निय-तणु-छाय व्व सयाणुवत्तिणी तस्स धणसिरी भन्जा । तेसिं रूवाइ-गुणोह-सुंदरो सुंदरो पुत्तो॥ रूव-रमणिजयाए रइ व्व जयसुंदरि त्ति से घरिणी । अन्नोन्न-सिणेह-पराण ताण वचंति दियहाई॥ अन्न-दिणे सव्वेसिं भावाणं खण-विणस्सरतणउ । पंच-नमोकार-परो पंचत्तं धणवई पत्तो ॥ धणवइ-पयंमि ठविओ समग्ग-सयणेहिं सुंदरो पुत्तो। अह अन्न-वासरे सुंदरेण जणणी इमं भणिया॥ जो न कुणइ काउरिसोधणजणं जोव्वर्णमि वटतो। छगल-गल-त्थण-जुयलं व जीवियं निष्फलं तस्स ॥ किं च नरेण मइमया न चेय चित्तंमि चिंतियवमिणं । संते महंत-विहवे किं मह विहवजणेण जओ ॥ पइदियहं पूरिजइ जइ कह वि न निन्नया सहस्सेहिं । ता सुसइ चिय अइरा गरुओ वि तरंगिणी नाहो ॥ एवमवड्डिजंतो विविहेहिं निरंतरं उवाएहिं । विलयं वच्चइ नृणं बहुओ वि हु विहव-संभारो॥ तओ
सगुणो वि विनिग्गुणो च्चिय वुच्चए मुच्चए परियणेणं । पावइ विहव-विहूणो पए पए परिभवं पुरिमो॥ अलियं पि जणो धणइत्तयस्स सयणत्तणं पयासेइ । आसन्न-बंधवेण वि लजिजइ झीण-विहवेण ॥
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