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कुमारपालप्रतिबोधे
[तृतीयः ताव मसि-कसिण-काओ कर-धारिय-रज्जु-बद्ध-मक्कडओ॥ सप्प-करंडय-मंडिय-खंध-ट्ठिय-कावडि-सणाहो ॥ आगंतुं गारुडिओ भणइ इमं संखचूड ! उहेसु । एयावत्थं दह तुह जणणी दुक्खिया रुयइ ॥ सुत्तो व्व उडिओ सो तत्तो सव्वो वि विम्हिओ लोगो। गारुडिओ जंपड संखचूट ! तुह वच्छ ! जणओहं ॥ सो भणइ न मन्झ पिया तुमं जओ कसिण-वन-देहो सि । कणय-च्छवी पिया मे ता दंसइ चंदरूवं सो॥ तं टुं परितुट्टो पुत्तो चंदस्स चडइ उच्छंगे । तारा वि विम्हि य मणा जंपइ पिययम ! किमेयं ति ॥ सो भणइ पोय भंगे फलग-विलग्गो विलंघिउं जलहिं। पत्तो म्हि आसमं तत्थ तावसो भणइ मं दढें ॥ दिन्नो दियस्स लक्खो जस्स तए सो अहं गहिय-दिक्खो। वसण-वडियस्स तुह किं करेमि उचियं ति तेण तओ ॥ दिन्नो गारुड-मंनो रूव-परावत्तिणी तहा विजा । तो गारुडिओ होउं पत्तो म्हि तुमं गवसंतो॥ एयस्स इमा भला इमो य पुत्तु त्ति जाणए राया। ताराइ रूव-सीलेहिं विम्हिओ चिंतए एवं ॥ धन्ना एसा जा मीलमुज्जलं वहइ वसण-पत्ता वि । अहमो अहं तु एक्को जो पर-महिलाहिलास-परो॥ हा ! कह निल्लाजोऽहं जणस्स दंसेमि अत्तणो वयणं । तो गंतुं गुरु-पाने जिण-दिक्खं गिहए राया ॥ तग्गुण-रंजिय-चित्ता चंदं कुल-देवया ठवइ रजे । सो जिण-धम्म काउं तारा-सहिओ गओ सुगई॥
इति शीले तारा-कथा।
अवरासत्तं सूरं नलिणि व पई वियाणि पि न जा।
अन्नत्थ कुणब पीई स चिय जयसुंदरी धन्ना ॥ तं जहा
अत्थित्थ भरह वासे जहत्य-नामा पुरी जयंति त्ति ।
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