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२३८
कुमारपालप्रतिबोधे
[ तृतीयः
लद्धे बहुए वि दिओ नहि तिप्पइ भोयणेण विणा ॥ चंदो जंपइ पुरिसं जेमावसु मम गिहे इमे दो वि । पुरिसेण तेण नीओ धूया-सहिओ गिहे भट्टो॥ भट्टेण तेण दिहा विसिह-मणि-कणय-भूसण-सणाहा । सुर-तरु-लय व्व तारा गिहेग-देसंमि उवविट्ठा ॥ तीइ पुरओ पयहो भट्टो वेयक्खराइ वागरिउं । भोयणमिमस्स देसु त्ति कहइ पुरिसो पइ-निओगं ॥ तं सोउं सा तुट्टा सुवन्न-थालेसु देइ दुण्हं पि । घयसालि-दालि-मोयग-दहि-दुद्ध-प्पमुहमाहारं ॥ अचंतमतित्तेहिं पियरेहिँ व तेहि भुत्तमाकंठं । तो दाउं तंबूलं ताराए ताइँ भणियाई ॥ एजह पुणो वि तुम्भे तो तच्चरिएण विम्हिय-मणाई । सीसं धूणंताई पत्ताइँ दुवे वि सट्ठाणं ॥ अह अत्थमिए सूरे भुवर्णमि वियंभिए तिमिर-पूरे । पिउणा पुरंदरेणं लेक्खं सो पुच्छिओ चंदो ॥ तेणावि सिटि-पुरओ कहिओ दिय-दिन्न-लक्ख-वुत्तंतो। तत्तो रुट्ठो सेट्ठी चिंतिउमेवं समाढत्तो॥ नवमे मासम्मि नवो हवेज पुत्तो पुणो वि पुरिसस्स । लक्खो पुण दम्माणं न विढप्पइ वरिस-लक्खे वि॥ तो सेट्ठी अक्कोसइ चंदं रे रे कुपुत्त ! गुण-मुत्त । मेल्लसु निल्लक्खण ! लक्ख-दाण-दुल्ललिय ! मह गेहं ।। जं देसि तुमं लक्वं विलक्ख ! कस्सासि राइणो पुत्तो । नहि मुणसि दुविढप्पं कवड्डमेत्तं पि वणियाणं ॥ इय निहुरेहिं वयणेहिं सिट्टिणो दूमिओ मणे चंदो। बग-रडिएहि व हंसो सराउ गेहाउ निक्खंतो॥ सुय-संखचूड-कलिया चलिया चंदस्स पिट्ठओ तारा । मुत्तूण पई कुल-बालियाण सरणं हि को अन्नो ॥ देसंतरंमि चलिओ चंदो पुत्तं पहंमि वहमाणो। न मुणइ मणम्मि खेयं तारा पइ-मग्ग-अणुलग्गा ॥ ताराइ कडीहिंतो बला वि गिण्हेइ नंदणं चंदो ।
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