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[तृतीयः
कुमारपालप्रतिबोधे सील-रयणं महग्धं रक्खेज्ज मियावइ व्व बुद्धीए ।
पज्जोओ व्व अकित्तिं सील-विहुणो लहइ जम्हा ॥ तं जहा
अत्थि पुरं साकेयं संकेय-निकेयणं व लच्छीणं । कमलच्छीणं थण-मंडलेसु कर-पीडणं जत्थ ॥ जक्खो सुरपिओ तत्थ अस्थि तं चिंतिऊण पइ वरिसं । किजइ महसवो सो वि चित्तगं हणइ चित्तयरं ॥ अह जइ नो चित्तिजइ तो कुडो सो पुरे कुणइ मारिं। तो भीया चित्तयरा आढत्ता नासि सव्वे ॥ तं नाउं चित्तयरा कया नरिंदेण संकला-बद्धा । तन्नामाइं घडे पत्तएसु लिहिऊण छूढाई ॥ नीहरइ जस्स नामं पइवरिसं तेण चित्तियव्वो सो। एवं वच्चइ कालो अह कोसंबीए निक्खंतो॥ चित्तयर-दारओ तत्थ आगओ चित्त-सिक्खण-निमित्तं । सोय हिओ एक्काए गेहे चित्तयर-थेरीए॥ जाया तप्पुत्तेणं सह मेत्ती तत्थ तम्मि वरिसंमि । थेरी सुयस्स नामं विणिग्गयं तो रुयइ थेरी ॥ किं रोयसि त्ति इयरेण पुच्छिया कहइ जक्ख-वुत्तंतं । निय-पुत्त-वारयं तह पाहुणओ भणइ मा रुयसु॥ चिट्ठउ तुह पुत्तो जक्खमेयमहमेव चित्तइस्सामि । थेरी जंपइ मह वच्छ ! नंदणो होसि किं न तुमं ॥ चित्तेमि तहवि जक्खं अच्छओ मह बंधवो सुहेणं ति। वोत्तूण कुणइ छटुं सो पहाओ चंदण-विलित्तो ॥ सुइ-वत्थ-नियत्थंगो अठ्ठ-गुण-पडंचलेण बद्ध-मुहो । नव-वन्नएहिं नव-कुच्चएहिं सो चित्तए जक्खं ॥ नमिऊण पंजली सो जंपइ निग्गह-अणुग्गह-समत्थ!। खमसु सुर-प्पिय भयवं ! अवरद्धं जं मए किं पि ॥ इय भत्तीए तुट्ठो जक्खो जंपइ वरं वरसु भद्द !। सो भणइ जक्ख ! तुट्टोसि जइ तुमं ता परं एत्तो॥ तुमए विणासियव्वो न को वि, जक्खो पयंपए एवं
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