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प्रस्तावः]
राजपिण्डे भरतचक्रि-कथा।
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करिसण-वणिज्ज-पमुहं मुंचह निचं करेह सज्झायं । पढह अउव्वं नाणं चिट्ठह धम्मेक-कय-चित्ता ॥ वजरह मज्झ पुरओ जिओ तुमं वट्टए भयं जम्हा । तम्हा माहण माहण तह चेव कुणति ते सव्वं ॥ तव्वयणं सुणिउं सो चिंतेइ जिओ अहं कसाएहिं । तेहिं तो मज्झ भयं माहणिहं पाणिणो तत्तो ॥ हा! पावोहं विसएहिं मोहिओ इय खणं सुहं झाणं । होइ भरहस्स पच्छा पुणो वि सो सज्जए रज्जे ॥ अह विन्नवंति भरहं सूआरा नजए नहि विसेसो । सावग-असावगाणं कुणइ परिक्खं भणइ भरहो ॥ ते वि हु विहिय-परिक्खे चक्कहरो कागिणीए लंच्छेइ । एए रयण-त्तय-भूसिय त्ति रेहातिगं काउं ॥ छढे छठे मासे परिक्खिया कागिणीइ कय-चिंधा। भुंजंति, तया माहण-भणणाओ माहणा जाया ॥ इय गुरु-वागरियं भरह-चरियमायन्नि कुणइ राया। जइ मह भिक्खा न मुणीण कप्पए राय-पिंडो त्ति ॥ तत्तो भरहो व्व अहं पि भोयणं सावगाण वियरेमि । गुरुणा वुत्तं जुत्तं अणुसरि उत्तम-चरित्तं ॥ अह कारावइ राया कण-कोट्ठागार-घय-घरोवेयं । सत्तागारं गरुयाइ भूसियं भोयण-सहाए । तस्सासन्ने रन्ना कारविया वियड-तुंग-वरसाला । जिण-धम्म-हत्थि-साला पोसह-साला अइविसाला ॥ तत्थ सिरिमाल-कुल-नह-निसि-नाहो नेमिणाग-अंगरहो। अभयकुमारो सेट्ठी कओ अहिट्ठायगो रन्ना ॥ इत्थंतरंमि कवि-चक्कवहि-सिरिवाल-रोहण-भवेण । बुहयण-चूडामणिणा पयंपियं सिद्धवालेण ॥ देव-गुरु-पूयण-परो परोवयारुजओ दया-पवरो।
दक्खो दक्खिन्न-निही सच्चो सरलासओ एसो॥ किञ्चक्षिस्वा तोयनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं रोहणो
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