________________
२१८
कुमारपालप्रतिबोधे
[तृतीयः सो पणमिऊण सामि कयंजली धम्म-देसणं सुणइ । धम्म-कहा-पजते गहिय-वए बंधवे दहें। स-विसाय-मणो चिंतइ घेत्तूण मए इमाण रजाई । किं साहियं हहा ! मे विसयामिस-लालसा-बुद्धी । बंधूहिं विणा भोए भुंजंतोहं धुवं गरहणिजो। हक्कारिऊण काए काओ वि हु भक्खए भक्खं ॥ जह पुण मह पुन्नेहिं एए भोए पुणो वि गिण्हंति । तो भरहो पहु-पासे भोगेहिं निमंतए बंधू ॥ भणइ पहू पुहवीसर ! सरलोसि सहोयरा इमे तुज्झ । मुत्तूण सयं भोए पुण वि किमिच्छंति वंतं व ॥ पंचहिं सगड-सएहिं भरहो आणाविऊण आहारं । पुण विनिमंतइ सव्वे वि साहुणो, तो भणइ भयवं ॥ आहाकम्मियमिणमाहडं च कप्पइ नरिंद ! न मुणीणं । पुणरवि अकय अकारिय-असणेण निमंतए भरहो ॥ भणइ भयवं न कप्पइ इमं पि साहण राय-पिंडो त्ति । इय पहुणा पडिसिद्धो भरहो जाओ विलक्ख-मणो ॥ उवलक्खिउं विलक्खं भरहं पुच्छइ सुरेसरो सामि । पसिऊण कहसु भयवं ! अवग्गहो कइविहो होइ ॥ तो कहइ तित्थ-नाहो अवग्गहो पंचहा हवइ सक्क !। सुरवइ-चक्कि-निवा-गारि-साहु-संबंधि-भेएहिं ॥ हरिणा वुत्तं मुणिणो विहरंति अवग्गहमि जे मज्झ । जिल्लाह ! अणुनाओ भए नियावग्गहो तेसिं ॥ चिंतेइ चक्कव। जइ वि न गहियं मुणीहि मह किं पि । तह वि हु होमि कयत्थो निययमवग्गहमणुन्नविडं ॥ तो पहु-पुरओ सक्को व्व कुणइ चक्की अवग्गहाणुन्नं । पुच्छइ हरिं किमिमिणा कायव्वं भोयणेण मए ? ॥ अह वागरियं हरिणा गुणुत्तराणं तुम इमं देहि । चिंतइ चक्की गिहिणो गुणुत्तरा सावया मज्झ ॥ दायव्वमिणं तेसिं ति निच्छिउं सावगे भणइ चक्की । मह मंदिरंमि तुम्भे निरंतरं भोयणं कुणह ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org