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प्रस्तावः]
राजपिण्डे भरतचक्रि-कथा। तेसिं जुज्झताणं दिद्वि-गिरा-बाहु-मुट्ठी-लट्ठीहिं । पबलेण बाहुबलिणा सव्वत्थ वि जिप्पए भरहो ॥ भरहो विसन्न-चित्तो किमहं चक्की नव त्ति चिंतेइ । तो फुरिय-किरण-चकं भरहस्स करे चडइ चकं ॥ बाहुबलिस्स वहत्थं तं सो मिल्लइ पयाहिणं दाउं । चडइ पुण भरह-हत्थे चकं पहवइ न हि सगोत्ते ॥ अह बाहुबली बुल्लइ अणेण चक्केण तुज्झ को दुप्पो । सबलं सचक्कमेको अहं तुमं चूरिउं सक्को॥ किं तु विसएहिं कजं न मज्झ जेसिं कए मम पइन्नं । लुपसि तुमं विमूढो तेण उ मह बंधवा धन्ना ॥ जे वजिऊण रज पडिवन्ना ताय-मग्गमिय भणिउं । उक्खणइ केस-पासं तणं व अह चितए एवं ॥ किं जामि सामि-पासं अहवा पुव्वं पवन्न-दिक्खाण । लहु-बंधवाण मज्झे मज्झ लहुत्तं धुवं होही ॥ तत्तो लहिऊण इहेव केवलं पायमुक्खणिस्सामि। इय चिंतिय पडिवन्नो पडिमं तत्थंव बाहुबली ॥ अजिओ तुमं अहं पुण जिओ न एकेण केवलं तुमए । किं तु कसाएहि वि जो करेमि जुई विसय-गिद्धो॥ इय जंपतो तं पणमिऊण भरहो निवेसए रज्जे । तस्स सुयं सोमपहं पच्छा गच्छइ निय-पुरीए ॥ सीउण्ह-बुट्टि-पवण-प्पमुहं दुसहं दुहं वि सहमाणो । तत्थेव निराहारो बाहुबली वच्छरं गमइ॥ अह बंभी-सुंदरि-साहुणीओ पहु-पेसियाओ बाहुबलिं। करि-खंधारूढाणं न होइ नाणं ति जपंति ॥ तं सोउं सो चिंतइ माणो हत्थी अहं तमारुढो। तं मुत्तुं पहु-पासे जामि त्ति तओ चलइ जाव ॥ ता तुट्ट-घाइ-कम्मस्स जायए तस्स केवलं नाणं । गंतुं सो पहु-पासे केवलि-परिसाइ विणिविटो॥ अह अन्न-दिणे भयवं अट्ठावय-पव्वए समोसरिओ। भरहो गुरु-रिद्धीए पहु-नमणत्थं गओ तत्थ ॥
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