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प्रस्ताव: ]
राजपिण्डे भरतचत्रि - कथा |
सो पुव्व भवभासेण दाण-धम्मुज्जुओ बाढं ॥ अभएण चिंतियमिणं एसो धम्मस्स निच्छयं जुग्गो । जम्हा कहिज्जमानं अभिनंदइ भयवओ वयणं ॥ अह पत्तो वीरजिणो सहिओ चउदसहिं मुणि सहस्सेहिं । परियरिओ अज्जाणं छत्तीसाए सहस्सेहिं |
वह देवेहिं कथं साल-त्तयं सुंदरं समोसरणं । तत्थ निविट्ठो भयवं वागरइ चउव्विहं धम्मं ॥ अह पुच्छइ कयन्नो भयवं ! भोगाण अंतरं मज्झ । जायं केण निमित्तेण वज्जरइ जिणवरो एवं ॥ पुव्व-भवे तिहिं भागेहिं पायसं साहुणो नए दिनं । एएण कारणं भोगाण तुतरं जायं ॥ संभरि पुव्व भवं कयन्नो विन्नवेइ संविग्गो । पुव्वं खु मंद-सत्तेण दाणमेवं मए दिन्नं ॥ संप पुण दढ - सत्तो होउं वज्जेमि सव्वमवि संगं । भइ जिणो जुत्तमिणं मणुयस्स विवेग जुत्तस्स ॥ अह विहिय उचिय- किच्चो पडिवज्जइ संजमं जिण - सयासे । कय- तिब्व तवचरणो वच्चइ कयन्नओ सग्गं ॥ इति सान्तरदाने कृतपुण्यकथा |
एवं सोउं मुणि दाण-धम्म- माहप्पमुल्लवइ राया । भयवं ! गिण्हह मह वत्थ- पत्त-भत्ताइयं भिक्खं ॥ तो वज्जरह मुणिंदो इमं महाराय ! राय - पिंडो न्ति । भरहस्स व तुह भिक्खा न गिव्हिडं कप्पइ जईणं ॥ रन्ना भणियं भयवं ! को सो भरहो पयंपिओ 'तुमए ? । गुरुणा वृत्तं नरवर ! कहेमि जइ कोउगं तुज्झ ॥ इह आसि रिसह - सामी नीइ - कला - सिप्प - देसओ पढमो । राया पढमो ओसप्पिणीह पढमो य तित्थयरो ॥ कुमरत्तणंमि गमिउं जिण-नाहो वीस पुव्व-लक्खाई । परिवालिऊण रज्जं पुव्वाण तिसहि लक्खाई ॥ अहिसिंचिऊण रज्जे कोसल- देसे अउज्झ-नयरीए ।
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