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कुमारपालप्रतिबोधे
कन्नाइ इमी विकएण होही धणं च तहा ॥
तं सुणिऊण विसन्ना चिंतइ चित्तंमि धारिणी देवी । हा हय-विहि मह का हिसि तुममज्ज वि केत्तियं दुक्खं ॥ संपत्तम्हि विओगं पणो गुण-रयण-जलहिणो रन्नो । निस्सीम - समीहिय-कारयस्स रज्जस्स चुक्कम्हि ॥ जायम्हि भायणं सयल-सयण- परियण-सठाण - भंसस्स । इच्चाइ - दुक्खमखिलं सहियमिणं दुस्सहं पि मए ॥ जं पुण सील-विणासं मह काउं महसि तं खलु न जुत्तं । जं विमल - कुले जाया जाणिय-जिण वयण-तत्ताहं ॥ असमंजसं पि सोउं अजवि जीवामि अहह ! निब्भग्गा । इय मत्तु - भिन्न-हिययाइ तीह पाणा विणिक्खंता ॥ दहूण मयं देविं विचिंतियं उट्ठिएण धी मज्झ । एसा भज्जा होहि त्ति जंपियं तं इमा सोउं ॥ जह पत्ता पंचत्तं विवज्जिही कन्नयावि तह एसा । इय चिंतिऊण अणुकूलमालवंतेण तेणेसा ॥ आणीया कोifi चउप्प हे मत्थए तणं दाउ । आढत्ता विक्किणि दिव्व-वसा सिट्ठिणा दिट्ठा ॥ चिंतियमणेण एसा उत्तम पुत्ती इमीइ मुत्तीए । माइ पिउ - परिभट्ठा एएण दुरप्पणा पत्ता ॥ हरिणि व्व लुद्धएणं जूहभट्ठा पलं व विक्कणिउं । इह ठविया हा ! कस्स वि हीणस्स चडिस्सइ करम्मि || दाउँ बहुं पि दव्वं गिण्हासि इमं जओ न सक्केमि । निय-पुत्तिं पिव एयं उविक्खियं दुद्दसा वडियं ॥ मह मंदिरे इमीए चिट्टंतीए अणत्थ-चत्ताए । होही कमेण सयणेहिं संगमो इय विचिंतेउं ॥ सिट्ठी घणावहो उट्टियस्स दाउँ मणिच्छियं मुलं । परमुल्लसंत करुणो निय-गेहे वसुमई नेइ ॥ सो पुच्छइ पुत्ति ! तुमं कस्स सुया सा वि उत्तमत्तणओ । कहिउं निय-कुलमखमा अहो सुही मोण - मल्लीणा ॥ मूला घणावणं भणिया एसा पिए ! सुया अम्ह ।
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[ तृतीयः
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