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१८२
कुमारपालप्रतिबोधे
[तृतीयः
जीवो कुणइ पवित्तिं पुन्ने पावाओ विणियत्तिं ॥ पुन्ने पवत्तमाणो पावइ सग्गापवग्ग-सोक्खाई। नारय-तिरिय-दहाण य मुच्चा पावाओ विणियत्तो॥ जो पढइ अउव्वं सो लहेइ तित्थंकरत्तमन्न-भवे । जो पुण पढावइ परं सम्म-सुयं तस्स किं भणिमो॥ जो उण साहेज़ भत्त-पाण-वर-वत्थ-पुत्थयाईहिं । कुणइ पढंत्ताणं सो वि नाण-दाणं पयट्टेइ ॥ नाणमिणं दिताणं गिण्हताणं च मुक्ख-परदारं । केवल-सिरी सयं चिय नराण वच्छत्थले लुढइ ॥ सम्मं नाणेण वियाणिऊण एगिंदियाइए जीवे । तेसिं तिविहं तिविहेण रक्खणं अभय-दाणमिणं ॥ जीवाणमभय-दाणं जो देइ दद्या-वरो नरो निच्चं । तस्सेह जीवलोए कत्तो वि भयं न संभवइ ॥ जं नव-कोडी-सुद्धं दिजइ धम्मिय-जणस्स अविरुद्धं । धम्मोवग्गह-हे धम्मोवटुंभ-दाणमिणं ॥ तं असण-पाण-ओसह-सयणासण-वसहि-वत्थ-पत्ताई। दायव्वं बुद्धि-मया भवन्नवं तरिउकामेण ॥ तं दायग-गाहग-काल-भाव-सुद्धीहिं चउहिं संजुत्तं । निव्वाण-सुक्ख-कारणमणंत-नाणीहिं पन्नत्तं ॥ जो देइ निजरत्थी नाणी सद्धा-जुओ निरासंसो। मय-मुक्को जुग्गं जइ-जणस्स सो दायगो सुद्धो॥ जो देइ धणु-खेत्ताइं जइ-जणाणुचियमेअ-विवरीओ। सो अप्पाणं तह गाहगं च पाडेइ संसारे ॥ जो चत्त-सव्व-संगो गुत्तो विजिइंदिओ जिय-कसाओ। सज्झाय-ज्झाण-निरओ साहू सो गाहगो सुडो॥ कम्म-लहुत्तणेण सो अप्पाणं परं च तारेइ । कम्म-गुरू अतरंतो सयं पि कह तारए अन्नं ॥ पुवुत्त-गुण-विउत्ताण जं धणं दिजए कु-पत्ताण । तं खलु धुव्वइ वत्थं रुहिरेणं चिय रुहिर-लित्तं ॥ दिन्नं सुहं पि दाणं होइ कु-पत्तंमि असुह-फलमेव ।
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