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कुमारपालप्रतिबोधे
जइ वि तुमए विमुक्का अहं अहन्ना तहा वि मह नाह ! | तुह चलण च्चिय सरणं ति निच्छिउं सा ठिया बाला ॥ दाऊण वच्छरं दाणमुज्जयंते पवन्न चारित्तो । च-पन्नास- दिणंते लहइ पहू केवलं नाणं ॥ तो नगरागर-गामाइएसं पडिबोहिऊण भविय-जणं । सो-वास-सहस्साऊ इहेव अयले गओ मुक्खं ॥ रन्ना भणियं भयवं ! अज वि तक्काल- संभवं किमिमं । चिट्ठ दसार- मंडव - पमुहं तो जंपियं गुरुणा ॥ तक्काल-संभवं जं तं न इमं किं तु थेव-काल-भवं । तमिमं पुण जेण कथं कहेमि तं तुज्झ नर-नाह ! ॥ गुरु- नागहत्थि-सीसो बालो वि अ-बाल-मह-गुणो सुकई । कइया वि कंजियं घेत्तुं मागओ कहइ गुरु-पुरओ ॥ अब (?) तंबच्छीए अपुष्फियं पुष्फदंत - पंतीए । नव-सालि - कंजियं नव-बहूइ कुडएण मे दिनं ॥ गुरुणा भणिओ सीसो वच्छ ! पलित्तोसि जं पढसि एवं । सीसो भइ पसायं कुरु मह आयार- दाणेण ॥ एवं ति भणइ सूरी तो पालित्तो जणेण सो वृत्तो । जाओ य सुय-समुद्दो आयरिओ विविह-सिद्धि-जुओ ॥ काऊण पाय-लेवं गयणे सो भमइ नमइ तित्थाई । सुइ सुरट्ठ-निवासी भिक्खू नागज्जुणो एवं ॥ सो पत्थइ पालित्तं पयच्छ ! निय-पाय-लेव - सिद्धिं मे । गिve मह कणय - सिद्धिं तत्तो पालित्तओ भणइ ॥ निकिंचणस्स किं कंचणेण किं चत्थि मे कणय - सिद्धी । तुह पाय-लेव-सिद्धिं च पाव- हेउ त्ति न कहेमि ॥ तो कय- सावय-रूवेण भिक्खुणा आगयस्स गिरिनयरे । गुरुणो गुरु भत्तीए जलेण पक्खालिया चलणा ॥ पय-पक्खालण-सलिलस्स गंधओ ओसहीण नाऊण । सत्तुत्तरं सयं तेण पाय-लेवो सयं विहिओ ॥ तव्वसओ गयणे कुक्कुडो व्व उप्पडइ पडइ पुण भिक्खू । तो कहइ जहावित्तं गुरुणो तेणावि तुट्ठेण ॥
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[ द्वितीयः
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