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१७१
प्रस्तावः ]
गुरुसेवायां सम्प्रतिनृपकथा । सम्मत्तं बारसविह-सावग-धम्मेण संगयं तत्तो। गिण्हइ संपइ-राओ अजसुहथिस्स पय-मूले ॥ अच्चइ जिणो ति-संझं पणमइ मुणिणो मुणेइ सिद्धतं । सो महि-वलयं सयलं जिण-भवण-विभूसियं कुणइ ॥ अवर-वरिसे सुहत्थिम्मि आगए तत्थ जिण-भवण-जत्ता । दविण-विणिओग-विहिउजमेण संघेण पारद्धा ॥ तत्थ सुहत्थी जिण-मंडवम्मि निवसइ समग्ग-संघ-जुओ। आगंतुं गुरु-पुरओ कयंजली चिट्ठए राया ॥ काउं जिणहर-जत्तं जिण-रह-जत्ता जणेहिं आढत्ता। भमइ रहो नयरीए पए पए विहिय-सकारो॥ रायभवणम्मि पत्तो तं दटुं संपई फुरिय-हरिसो। अच्चइ सयं चिय जिणं अट्ठ-पयाराइ-पूयाए॥ तकालमेव हक्कारिऊण राया भणेइ सामंते । जइ इमं मन्नह सामि तो जिण-भत्तिं कुणह तुन्भे ॥ समणाण सावगा होह जेण नाहं धणेण तृसेमि । इय विहिए खलु तोसो मज्झ महंतो कओ होइ॥ अह ते वि जिणहराई रहजत्ताओ जईण भत्तिं च । सव्वे कुणंति एवं पन्नविया आरिया रन्ना ॥ विहरंति जहा जइणो अणारिएसुं वि करेमि तह इहिं । इय चिंतिऊण राया अणारिए एवमाणवइ ॥ जह जह मग्गंति करं मज्झ भडा देह तह तहा तुब्भे । तो पट्टविया रन्ना मुणि-वेस-धरा नरा तत्थ ॥ एवं अणारिए ते भणंति वत्थन्न-पाणमम्हाणं । देयं रहियमिमेहिं बायालीसाइ-दोसेहिं ॥ पढियव्वं पुण एवं ता सामी तुम्ह तूसिहि नूणं । अन्नह करिही कोवं तहेव तं ते वि हु कुणंति ॥ इय जइ-जणोचियाचार-चउर-चित्तेसु तेसु विहिए। सूरी अजसुहत्थी संपइ-राएण विन्नत्तो॥ विहरंति किं न मुणिणो अणारिएसुं ? , गुरु भणइ एवं । तेसु अनाणतणओ नाणाइ-गुणा न वटुंति ॥
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