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कुमारपालप्रतिबोधे
[द्वितीयः
तो तत्थ लिहियमेयं पिच्छइ 'अंधीयतां कुमार' इति । सो भणइ अह्म वंसे अखलिय-आणा निवा सव्वे ॥ ता नूणमहं काहं लेहत्थं परियणो भणइ कुमरं । पुण पुच्छिऊण कीरइ सो जंपइ किं वियारेण ? ॥ तो तत्त-सलायाए अच्छि-जुयलं अंजए सयं कुमरो। जाओ अंधो पुरिसो वि कहइ सव्वं इमं रनो॥ राया विसन्न-चित्तो विसमं विहि-विलसियं ति चिंतेइ । रजेण किमंधस्स ? त्ति देइ गामं च तस्सेगं ॥ उज्जेणिं पुण वियरइ सव्वकि-पुत्तस्स कुमरभुत्तीए । अह गीय-कलब्भासे कय-चित्तो चिट्ठइ कुणालो ॥ सो दद्मग-साहु-जीवो कुणाल-पुत्तो तुमं समुप्पन्नो। तुह रज्जं इच्छंतो कुसुमपुरे वच्चइ कुणालो ॥ तत्थ पगिडं गीयं गायंतो रंजए जणं सयलं । पत्तो परं पसिद्धिं रन्ना सद्दाविओ एसो ॥ तस्स पुरओ कुणालो गीयं गाएइ जवणियंतरिओ। तुट्ठो तं भणइ निवो मग्ग वरं जंपइ कुणालो ॥ चंदगुत्त-पपुत्तो य बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो अंधो जायइ काकिणिं ॥ तो रन्ना सो नाओ निय-तणओ जवणियं अवणिऊण । अंके ठविउं भणिओ पुत्त! तए मग्गियं थोवं॥ मंती भणइ न थेवं जेण नरिंदाण कागिणी रज्जं । भन्नइ तो भणइ निवो पुत्त ! किमंधस्स रज्जेण ? ॥ भणइ कुणालो करिही रजं मह नंदगो, भणइ राया। जाओ कया तुह सुओ, संपइ जाओ त्ति सो भणइ ॥ तो 'संपइ 'त्ति नामं तुज्झ कयं आणिऊण समयम्मि। ठविओ रज्जम्मि तुम जाओसि तिखंड-भरह-वई॥ भणइ निवो पत्तोऽहं तुज्झ पसाएण इत्तियं रिडिं। इहि पि गुरु! तुममेव मज्झ आइससु करणिकं ॥ भणइ गुरू जिणधम्मं उभय-भव-सुहावहं कुरु नरिंद !। जम्हा पुणो वि दुलहा सुमाणुसत्ताइ-सामग्गी॥
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