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कुमारपाल प्रतिबोधे
दिट्ठो कहिं चि एसो मए मणाणंदकारओ सूरी । इय विमरिसं कुणंतो मुच्छाए निवडिओ राया ॥ संभंत - परियणेणं कय-पवणो चंदणेण सित्तंगो । संजाय - जाइसरणो सत्य-मणो उट्ठिओ राया ॥ तो आगओ नरिंदो अज्ज - सुहत्थिस्स वंदण- निमित्तं । भूमि - निहि उत्तमंगो तं नमिउं पुच्छए एवं ॥ जिण - धम्मस्स फलं किं ?, कहइ सुहत्थी सिवं च सग्गो य । पुच्छइ पुणो वि राया किं सामाइय फलं भयवं ! ॥ सामाइयमव्वत्तं रज्जाइ - फलं जिणेहिं पन्नतं ।
इय गुरुणा वागरिए राया दढ-पच्चओ जाओ ॥
पुण वि सुहत्थि नमिउं भणइ निवो किमुवलक्खह ममं ति ? | दाउँ सुओवयोगं अज्ज - सुहृत्थी भणइ एवं ॥ उवलक्खेमि तुममहं पुव्व भवं तुह कहेमि सुणसु तुमं । अत्थि पुरी कोसंबी जिणभवण-विभूसिया रम्मा ॥ तत्थ महागिरि-सूरी अहं च गच्छेहिं परिगया पत्ता । गच्छ-गरुअत्तणेणं दो वि ठिया भिन्न-वसहीसु ॥ तत्थ तया दुभिक्खं वह गय मित्त- बंधवाविक्खं । तह वि जणो साहूणं भत्ताइ विसेसओ देह ॥ अन्न दिने भिक्खत्थं मुणिणो धणसिट्टिणो गिम्मि गया । तेण मणुन्नं अन्नं दिन्नं तेसिं स - बहुमाणं ॥ दिहं च इमं सव्वं दमगेणिक्केण तो मुणीण इमो । गिह- निग्गयाण जंपइ वियरह मम भोयणं एयं ॥ मुणिणो भणति अम्हे एयस्स न सामिणो अवि य गुरुणो । सो विमुणि-पट्टि - लग्गो पत्तो वसहीइ मह पासं ॥ पत्थेइ भोयणं मं मुणिणो वि कहंति तस्स वृत्तंतं । तो सदय-मणेण मए उवओग परेण मुणियमिणं ॥ दमगो इमो पर भवे पभावगो पवयणस्स होहि त्ति । भणिओ सो जइ दिक्खं गिण्हसि तो भोयणं लहसि ॥ तं पडिवज्जइ दमगो मए सकरुणेण दिक्खिओ एसो । भुंजाविओ जहिच्छं मोयग पमुहं वराहारं ॥
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[ द्वितीय:
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