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प्रस्ताव: ]
गुरुसेवायां सम्प्रतिनृपकथा |
बंधु-पडिबोहणत्थं गओ सुहत्थी गिहम्मि सिट्ठिस्स । मोह - दवानल-पसमण-घणावलिं देखणं कुणइ ॥ इत्थंतरे पविट्ठो भिक्ख निमित्तं महागिरी तत्थ । अज्ज - सुहत्थी अभुट्ठिऊण भत्तीए तं नमइ । सिट्ठी जंपइ -- भयवं ! तुम्हाण वि अत्थि किं गुरू को वि । जं एवं नमह इमं तुम्भे भुवणिक्क-नमणिजा ॥ भइ सुहत्थी सिद्धिं जिणकप्पब्भास-कय-मणा एए । मह गुरुणो जे भिक्खं गिण्हंति सया चइजंतिं ॥ नामं पि पाव- हरणं इमाणमेवं महागिरिं थोडं । पडिबोहिय - बहु-लोओ गओ सुहत्थी नियं ठाणं ॥ सिट्ठी जंपइ सपणे छडिज्जतिं पयासिउं भिक्खं । दिजह इमस्स मुणिणो सा तुम्ह महाफला होही ॥ तं पडिवन्नं सयणेहिं अह पविट्ठो दुइज्ज - दियहम्मि | भिक्खा निमित्तमेसिं गेहेसु महागिरी भयवं ॥ तं तं हुं सिट्टि बंधवा ते कुणंति तह चेव । उवओगेण असुद्धं तं नाउं गिण्हए न गुरू ॥ गंतुं वसहि जंपइ इमो सुहत्थि तए अईय दिने । काऊण मज्झ विणयं अणेसणा निम्मिया महई || जम्हा तुह उवएसेण तेहि सा मज्झ सज्जिया भिक्खा । न पुणो एवं काहं ति भणिय तं खामइ सुहत्थी ॥ अह पाडलिपुत्ताओ उज्जेणि संपई गओ राया । वच्चति सभूमीए कयाइ कत्थ वि निवा जम्हा ॥ तम्मि समयम्मि पत्ता अज्ज - महागिरि - सुहत्थिणो तत्थ । जीवंत - सामि पडिमा - रह - जुत्ता दंसण- निमित्तं ॥ घण-त्तूर - रवाऊरिय नहंगणो निग्गओ रहो तत्तो । भावारि वग्ग - विजओज्जयस्स जीवंत-सामिस्स ॥ दोहिं वि आयरिएहिं संवेण चउव्विहेण य समेओ । ठाणे ठाणे कीरंत- मंगलो सो परिभमंतो ॥ रायकुल- दार-देसं गओ तओ पत्थिवो गवक्ख-ठिओ । दहुं अज्ज - सुहत्थि चिंतिउमेवं समादत्तो ॥
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