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प्रस्तावः]
गुरुसेवायां लक्ष्मीकथा
१५७
च्छीए लच्छीए भणिओ सो-आ! पाव ! पावं कह चिंतियं तए,कहं च वायाए पयंपियं इम, इमं पि वुत्तूण कहं च मे पुरो दंसेसि निल्लक्षण-अप्पणो मुहं ।
ताओ सर-दिहि-पहाओ होइ तुह दंसणे वि खलु पावं । इय धिक्करिओ सो तकरो व्व गेहाउ निक्खंतो॥ दिहो य केसवेणं गो-हचा-कारओ व्व मलिण-मुहो। भणिओ मित्त ! निमित्तण केण दीससि विसन्नो व्व ? ॥ सो जंपई नीससिउं जइवि अजुत्तं इमं कहिजंतं । , तह वि तुह कुसल-हेउं कहेमि अन्ना गई न जओ ॥ वज्जिय-कुल-कमाए लच्छीए लज्जमाण-चित्तोहं । पयडिय-मयण-वियारं सुइरं असमंजसं भणिओ॥ सयमेव लजिऊणं कयाइ विरमिस्सई इमा मूढा । इय चिंतंतेण मए उवेक्खिया एत्तियं कालं ॥ नवरं दियहे दियहे असइत्तण-समुचिएहिं वयणेहिं । भणइ ममं नय विरमइ असरगहो अहह ! महिलाण ॥ अज तुह दसणत्थं गओ गिह मित्त ! रक्खसीइ व्व । रुडो अहं छलन्नेसिणीइ सहस त्ति लच्छीए॥ हरिणो व्व वागुराओ गरुयाओ तग्गहाओ अप्पाणं । कहमवि विमोइऊणं भीय-मणो इत्थ पत्तोहं ॥ तो चिंति पवत्तो नणु जीवंतस्स नत्थि मे मुक्खो। एईऍ सयासाओ ता अत्ताणं हणेमि अहं ॥ एयं पि न जुत्तं जं एसा मित्तस्स अन्नहा कहिही । मित्तो य मह परुक्खे तह त्ति तं मन्निही सव्वं ॥ अहवा कहेमि सव्वं मित्तस्स जहडियं इमं जेण । न लहेइ सो अवायं एईए अकय-वीसासो॥ एयं पि न जुत्तं मे जं एईए अपूरियासाए । दुस्सीलत्तण-कहणं खयम्मि सो खार-निक्खेवो ॥ एवं विचित्त-चिंता-पवन्न-चित्तो तए अहं दिट्ठो। तेणेस विसन्नोऽहं तं सोउं केसवो कुविओ॥ बहुहा कयत्थिऊणं लच्छि निस्सारए निय-गिहाओ। सा निविण्णा मरणत्थमारुहइ तुंग-गिरि-सिहरं ।।
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