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कुमारपालप्रतिबोधे
[प्रथमः
हा भाय ! हा जणदण ! हा हरिवंसावयंस ! हा वीर !। किं ते रुयामि एवं सोहरगं भुयबलं विहवं ॥ इय विविहं विलवंतो गमिऊण दिण-निसं च बलदेवो । गोसे नेह-विमूढो चलिओ खंधे हरिं काउं ॥ गिरि-गहणेसु भमंतं सिद्धत्थ-सुरो तमोहिणा दटुं । तस्स पडिबोहणत्थं दिटुंते दसए एवं ॥ गिरि-मग्ग-अभग्गं समपहम्मि भग्गं च संघइ रहं सो। नर-रूवो आरोवइ पउमिणिसंडं सिलावट्टे ॥ दव-दड्ढ-थाणु-सरिसं तिंदुइणि-तरुं जलेण सिंचेइ। हरिय-तणंकुर-नियरं गावि-करोडी-मुहे छुहइ ॥ तं 8 भणइ बलो-अलं किलेसेण तुम्ह जं इमिणा । रह-नलिणी-तिंदुइणी-गावीण न कोइ होइ गुणो॥ सिद्धत्थ-सुरो जंपइ-जइया तुह खंध-संठियं मडयं । जीविहिइ तया होही गुणो रहाईण एएसिं ॥ ता लद्ध-चेयणेणं बलेण भणियं-किमेस मे भाया। सचं मओ त्ति जं एस को वि मं एवमुल्लवइ । तो पच्चक्खो होउं सिद्धत्थो भणइ-जरकुमाराओ। कण्हस्स वहो कहिओ जिणेण सो तहा जाओ॥ भणइ बलो-कण्ह-वहो विहिओ कइया जराकुमारेण । सिद्धत्थो कहइ-जराकुमार-वुत्तंतमेयस्स ॥ सो सिद्धत्थं आलिंगिउं भणइ-कहसु मज्झ कायव्वं । भणइ सुरो-जिण-वयणं संभर पडिवज पव्वजं ॥ भणियं बलदेवेणं-करेमि एयं कहं हरि-सरीरं । नइ-दुम-संगम-पुलिणे सक्कारसु इय सुरो भणइ ॥ उत्तम-पुरिसा पूयारिह त्ति तं पुजिउं तहेव कयं । अह नेमिजिणाणत्तो चारण-समणो तहिं पत्तो॥ तस्स समीवे वेरग्गसंगओ गिण्हइ बलो दिक्खं । तुंगे तुंगिय-सिहरे गंतुं तिव्वं तवं तवइ ॥ अह जरकुमरो पत्तो दाहिणमहुराइ पंडवाण इमो। अप्पेइ कुत्थुहमणिं कहेइ वारवइ-दाहाइ ॥
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