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प्रस्तावः]
अभयसिंहकथानकम् । दिन्नेसु उत्तमा इमाई लभंति पर-लोए ॥ एवं सुह-दुक्खेखें कीरंतेसुं परस्स इह लोए। ताई चिय पर-लोए लन्भंति अणंत-गुणियाई ॥ जो कुणइ नरो हिंसं परस्स जो जणइ जीविय-विणासं। विरएइ सोक्ख-विरहं संपाडइ संपया-भंसं ॥ सो एवं कुणमाणो पर-लोए पावए परेहिंतो। बहुसो जीविय-नासं सुह-विगमं संपओ च्छेयं ॥ जं उप्पइ तं लब्भइ पभूयतरमित्थ नत्थि संदेहो । वविएसु कोद्दवेसुं लब्भंति हि कोदव चेय ॥ जो उण न हणइ जीवे जो तेसिं जीवियं सुहं विभवं । न हणइ तत्तो तस्स वि तं न हणइ को वि पर-लोए ॥ ता भद्देण व नृणं कयाणुकंपा मए वि पुव्व-भवे। जं लंघिऊण वसणाइँ रज-लच्छी इमा लद्धा ॥ ता संपइ जीव-दया जाव-ज्जीवं मए विहेयव्वा । मंसं न भक्खियव्वं परिहरियव्वा य पारडी ॥ जो देवयाण पुरओ कीरइ आरुग्ग-संति-कम्म-कए। पसु-महिसाण विणासो निवारियव्वो मए सो वि ॥ जीव-वह-दुक्कएण वि जइ आरुग्गाइ जायए कह वि । तत्तो वानलेणं दुमाण कुसुमोग्गमो होजा ॥ जो जन्नेसु पसु-वहो विहिओ सग्गाइ-साहण-निमित्तं । दिय-पुंगव ! सेयं चिय विवेयणो तं न काहिंति ॥ बालो वि मुणइ एवं जं जीव-वहेण लब्भइ न सग्गो। किं पन्नग-मुह-कुहराओ होइ पीऊस-रस-वुट्ठी? ॥ तो गुरुणा वागरियं नरिंद ! तुह धम्म-बंधुरा बुद्धी । सव्वुत्तमो विवेगो अणुत्तरं तत्त-दसित्तं ॥ जं जीव-दया-रम्मे धम्मे कल्लाण-जणण-कय-कम्मे ।
सग्गापवग्ग-पुर-मग्ग-दसणे तुह मणं लीणं ॥ तओ रन्ना रायाएस-पेसणेण सव्व-गाम-नगरेसु अमारि-घोसणा-पडहवायण-पुव्वं पवत्तिया जीव-दया।
गुरुणा भणिओ राया-महाराय ! दुप्परिच्चया पाएण मंस-गिडी । धन्नो तुमं भायणं सकल-कल्लाणाणं जेण कया मंस-निवित्ती।
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