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प्रस्तावः]
अभयसिंहकथानकम् ।
३३
अणुपुंखमावडंतावि आवया तस्स ऊसवा हुंति।
सुह-दुक्खह कत्थ फुडओ जस्स कयंतो वहइ पक्खं ॥ इमं सोचा दामन्नगो तेसिं तिन्नि सय-सहस्साइं देइ । 'अणुचियं दाणं ति हक्कारिऊण पुच्छिओ रन्ना दामन्नगो 'किमेयं ति। तेण सिट्ठो निय-वुत्तंतो।तुट्टेण रन्ना सो ठाविओ सेट्ठी। विउल-भोए भुजंतस्स तस्स बच्चए कालो।
अह अन्नया निसाए पच्छिम-जामंमि सुह-विउद्धस्स। जाया इमस्स चिंता, पुव्व-भवे किं मए विहियं ॥ जं मह वसणाई पि हु ऊसव-स्वेण परिणयाई दढं । तो गोसे विनत्तो धम्म-निउत्तेण पुरिसेण ॥ अइसय-नाण-समग्गो समागओ विमलबोह-आयरिओ। दामन्नगो पहट्टो विणिग्गओ तस्स नमणत्थं ॥ तं वंदिलं निसन्नो पुरओ पुच्छइ मणो-गयं भावं । कहइ गुरू पुव्व-भवे जीव-दया जं कया तुमए ॥ तं पत्तो सि विभूई मरण-दसं जं च पाविया मच्छा।
घेत्तूण तिन्नि वारे तं तुममवि हंतुमारद्धो ॥ जं तइया छिन्ना मच्छगस्स पंखुडिया, तकम्म-वसेण तवावि अंगुली छिन्ना, तं सोऊणं पडिबुद्धो।
तो सम्मत्तं गिण्हइ जिण-मुणि-भत्तो पवन्न-जीव-दओ। दामन्नगो कमेणं पत्तो सग्गं च मोक्खं च ॥
अभयसिंहकथानकम् । जो पाव-भीरु-चित्तो अभयं जीवाण देइ करुणाए । कत्तो वि तस्स न भयं होइ जहा अभयसीहस्स ॥ रन्ना भणियं भयवं! कहेसु मह को इमो अभयसीहो? । वागरइ गुरू एवं नरिंद ! निसुणेसु अक्खेमि ॥ इत्थेव भरह-खेत्ते मणाभिरामे कुसत्थल-ग्गामे । पयईए भद्दओ नामओ आसि कुलपुत्तो॥ सो गाढे दुन्भिक्खे अनिव्वहंतो विचिंतए एवं । हणिउं मिगाइ-जीवे काहमहं अत्तणो वित्तिं ॥ तो गिण्हिऊण लगुडं बाहिं पत्तो पलोइउं ससयं ।
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