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कुमारपाल प्रतिबोधे
तत्थ उद्दो खुद्दो निम्मो निद्दओ समरसीहो । तत्तो दोसेक-पए तंमि पयाओ विरत्ताओ ॥ सदओ दक्खिन्न- जुओ परोवयारुजओ अमरसीहो । तो गुणनिहन्ति गरुयं वहइ जणो तंमि अणुरायं ॥ अह पवणु कुमर" 'ड (?) तरलत्तणओ समत्त भावाण । विसमामय - विहुरंगो सुग्गीवो मरणमावन्नो ॥
तो जेट्टो ति निविट्ठो रज्जे सयमेव सो समरसीहो । नहि निरगुणो वि जाणइ अप्पाणं गुरु-पयाजुग्गं ॥
सोय निक्करुणो पया - पालण - परंमुहो पारिद्धि-गिद्धो रज्ज - कज्जाई अचिंततो चिट्ठ | अमरसीहो उण पाणि-दया- परो परोवधार-निरओ निरय-गमणनिबंधणं बंधणं पिव पावं परिहरंतो कालं गमेइ । कयाइ तुरय-वाहणत्थं निग्गओ नगर-बाहिं कुमारो । वाहिऊण विविह देसु भवे वेग-प्पबंध - बंधुरंगे तुरंगे तरुच्छायाए वी समंतो पेच्छइ छगलं पुरिसेण निज्जंतं । छगलो य नियभासाए बुब्बुयइ, कुमारेण करुणाए मोयाविओ । तहावि बुब्बुयंतो न थक्कड़ । तो उल्लसंत-करुणो कुमरो तं पुरिसमेवमालवइ । किं नेसि छगलमेयं ? पुरिसो वि पर्यंपए एवं ॥ जन्नमि कीरमाणो सग्ग-फलो होइ पसु वहो जम्हा । तो तत्थ हंतुमेयं नेमि अहं; अह भणइ कुमरो ॥ जइ पसु वहेण सग्गो लब्भइ ता केण गम्मए नरए । नहि हिंसाओ अन्नं गरुयं पावं पयंपंति ॥ एत्थंतरंमि पत्तो सोममुणी तत्थ दिव्व-नाण- जुओ | चर-अचर - जीव- रक्खण-निमित्त महि-निहिय- नयण-जुओ || धम्मं च मुत्तिमंतं तं सम- रासिं व जंगमं दहुं । कुमरो भइ विवार्य एस मुणी छिंदिही अम्ह ॥ नमिऊण मुणी भणिओ कुमरेण हरेह संसयं अम्ह । पंचिदिय-जीव - बहाऑ होइ किं सग्ग-सुह-लाभो ॥ तो मुणिणो वजरियं जीव-बहाओ कुमार जीवाण । नारय- तिरिय-दुहाई हवंति न कयावि सग्ग-सुहं ॥ किं बहुणा भणिएणं एत्थत्थे संसयं इमो छगलो । छिंदिहिह संपयं चिय तो भणिओ साहुणा छगलो ||
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[ प्रथमः
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