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________________ लोकविभागः उक्तं च त्रिलोकप्रज्ञप्ती [५-१८१] - उच्छे हजो यगेणं पुरिओ बारस नहस्सरुंदाओ । जिणभवणमूसियाओ उवषणवेदीहि जुत्ताओ ॥ २० साष्टभागं त्रिकं चाग्रे मूले तत्तु चतुर्गुणम् । तत्प्राकारस्य विस्तारस्तस्य गाधोऽर्धयोजनम् || ३४७ यो ३ । १ । १२३ । सप्तत्पुनः सार्धा हेमप्राकार उद्गमः । गोपुराणां चतुर्दिक्षु प्रत्येकं पञ्चविंशतिः ।। ३४८ समस्तगोपुराणि १०० । एकत्रिशत्सगव्यूतिर्व्यासो गोपुरसद्मनः । उच्छ्रयो द्विगुणस्तस्माद् गाधः स्यादर्धयोजनम् ।। ३४९ ३१ को १ । ६२ को २ । ४] भूमिभिः सप्तदशभिः प्रासादा गोपुरेषु तु । सर्वरत्नसमाकीर्णा जाम्बूनदमयाश्च ते ।। ३५० तत्प्राकारस्य मध्येऽस्ति रम्यं राजाङ्गणं ततिः । योजनानां द्वादशशतं रुन्द्रं गव्यूतिरस्य तु ।। ३५१ सहस्रार्धधनुर्व्यासा गव्यूतिद्वयमुद्गता । चतुर्गोपुरसंयुक्ता वेदिका तस्य सर्वतः ।। ३५२ राजाङ्गणस्य मध्येऽस्ति प्रासादो रत्नतोरणः । द्विषष्ठियोजनं क्रोशद्वितीयं तस्य चोन्नतिः ।। ३५३ तदर्धविस्तुतिर्गाढो द्विकोशं द्वारमस्य तु । ' चतुरष्टयोजनव्यासतुङ्गं वज्रकवाटकम् ।। ३५४ प्रासादस्य चतुदिक्षु प्रासादः पृथगेकशः । प्रासादा जातजातास्ते षट् पर्यन्तचतुर्गुणाः ।। ३५५ [ १.३४७ त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कहा भी है - जिनभवनों से विभूषित और उपवन व वेदीसे संयुक्त उन नगरियोंका विस्तार उत्सेध योजनसे बारह हजार ( १२०००) योजन प्रमाण है ।। २० ।। उस पुरीके प्राकारका विस्तार उपरिम भागमें आठवें भागसे सहित तीन ( ३ ) योजन तथा मूल में उससे चौगुणा अर्थात् साढ़े बारह १२३ योजन प्रमाण है । गहराई उसकी आध योजन प्रमाण है ।। ३४७ ।। इस सुवर्णमय प्राकारकी ऊंचाई साढ़े सैंतीस (३७३) योजन प्रमाण है । चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें इसके पच्चीस (२५) गोपुरद्वार हैं । ये सब गोपुरद्वार चारों दिशाओं में १०० हैं ।। ३४८ ।। गोपुरस्थ प्रासादका विस्तार एक कोस सहित इकतीस ( ३१) योजन, ऊंचाई उससे दूनी (६२३ यो. ) और गहराई आध ( ३ ) योजन प्रमाण है ।। ३४९ ।। गोपुरद्वारोंके ऊपर जो सत्तरह भूमियों ( खण्डों) से संयुक्त प्रासाद हैं वे सर्वरत्नोंसे व्याप्त एवं सुवर्णमय हैं ।। ३५० ।। उस प्राकारके मध्य में रमणीय राजाङगण है जिसका विस्तार बारह सौ (१२०० ) योजन और बाहल्य आधा कोन मात्र है ।। ३५१ ।। उसके सब ओर पांच सौ (५०० ) धनुष विस्तृत दो कोस ऊंची और चार गोपुरद्वारोंसे संयुक्त वेदिका है ।। ३५२ ।। राजाङ्गणके मध्य में रत्नमय तोरणसे संयुक्त एक प्रासाद स्थित है। उसकी ऊंचाई बासठ योजन और दो कोस (६२३ यो. ), विस्तार उससे आधा (३१३ यो. ) तथा गहराई दो (२) कोस प्रमाण है । उसका वज्रमय कपाटोंसे संयुक्त द्वार चार योजन विस्तृत और आठ योजन ऊंचा है ।। ३५३-५४॥ उस प्रासादकी चारों दिशाओं में पृथक् पृथक् एक एक अन्य प्रासाद अवस्थित है । इस प्रकार उत्तरोत्तर मण्डलगत वे प्रासाद छह (छठे मण्डल) तक चोगुणे हैं ।। ३५५ ।। १ प चतुरस्ययो० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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