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________________ प्रथमो विभागः उक्तं च त्रिलोकप्रज्ञप्ती [४-७३] पाठान्तरम् - विजयादिवाराणं पंचसया जोयणाणि वित्था । पत्तेक्कं उच्छे हो सत्तसयाणि च पण्णासा ॥ १९ इति केचिद्वदन्ति । वि ५०० उ ७५० । तोरणाख्याः सुरास्तेषु दीपस्य परिधिविना । तोरणैः स चतुर्भक्तस्तो रणान्तरमुच्यते ॥ ३४४ । ७८५५ । ( ? ) द्वीपान् व्यतीत्य संख्येयान् 'जम्बूद्वीपोऽन्य इष्यते । पूर्वस्यां तस्य' वज्जायां विजयस्य पुरं वरम् ।। ३४५ तद् द्वादश सहस्राणि विस्तृतं वेदिकानृतम् । चतुस्तोरणसंयुक्तं सुचिरं सर्वतोऽद्भुतम् ॥ ३४६ -१.३४६ ] त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी कहा है। -- विजयादिक द्वारों में से प्रत्येकका विस्तार पांच सौ (५००) योजन और ऊंचाई सात सौ पचास ( ७५० ) योजन प्रमाण है ।। १९ ।। इस प्रकार कोई आचार्य कहते हैं । उन तोरणद्वारोंके ऊपर उनके ही नामवाले अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक देव रहते हैं । तोरणद्वारोंसे रहित जम्बूद्वीपकी परिधिको चारसे भाजित करनेपर इन तोरणद्वारोंका अन्तर कहा जाता है || ३४४ ॥ विशेषार्थ - जम्बूद्वीपकी बाह्य परिधिका प्रमाण ३१६२२७ योजनसे कुछ अधिक ( ३ कोस, १२८ धनुष १३ अंगुल ५ जो १ यूक १ लिक्षा आदि) है । यदि हम स्थूलतासे ( कोस आदिको छोड़कर) ३१६२२७ योजन मात्र परिधिको ग्रहणकर उक्त द्वारान्तरालको निकालते हैं तो वह इस प्रकार प्राप्त होता है- ४ जं. द्वी की परिधि ३१६२२७ यो ; लोकविभागके अनुसार प्रत्येक द्वारका विस्तार ५०० यो. है; अतः ३१६२२७-(५००× ४) = ७८५५६३ यो.; यह जगतीके बाह्य भागमें उपर्युक्त विजयादिक द्वारोंमें एक द्वारसे दूसरे द्वार के बीचका अन्तर प्रमाण हुआ । अभ्यन्तर भाग में जम्बूद्वीपकी परिधिका प्रमाण ३१६१५२ यो. है । अत एव ३१६१५२ - (५००x४) =७८५३८ यो.; यह् अभ्यन्तर भाग में उक्त द्वारोंके बीच अन्तरालका प्रमाण हुआ । तिलोयपण्णत्ती (४, ४३) और त्रिलोकसार ( ८९२) आदिके अनुसार उक्त द्वारोंमें प्रत्येक द्वारका विस्तार मात्र ४ यो. ही है । अतः इस मतके अनुसार उक्त अन्तरप्रमाण इस प्रकार होगा - ३१६२२७-(४×४) ७९०५२ यो. ; यह बाह्य अन्तर हुआ । ४ ३१६१५२ - (४ × ४) -=७९०३४ ४ ४ [ ४३ यो.; यह अभ्यन्तर अन्तर हुआ । इस जम्बूद्वीपसे संख्यात द्वीपोंको लांघकर एक दूसरा जम्बूद्वीप माना जाता है। उसकी पूर्व दिशामें वज्रा पृथिवी के ऊपर विजय देवका उत्तम पुर है ।। ३४५ ।। वह बारह हजार ( १२०००) योजन विस्तृत, वेदिकासे वेष्टित, चार तोरणोंसे संयुक्त, अविनश्वर और सब ओरसे आश्चर्यजनक है ॥ ३४६ ॥ १ व संख्येया । २ प 'स्मान्तस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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