SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२J लोकविभागः [१.१३७द्विगुणास्त्रिगुणाश्च स्युर्यासायामोद्गमस्ततः' । मध्यमा उत्तमाश्चषां द्विद्विद्वारं सगाधकम् ॥३३७ मध्यमप्रासादस्य वि १०० आ २०० उ १५० द्वारस्य वि १२ आ २४ उ ८ उत्कृष्टप्रासादस्य वि.१५० आ ३०० उ २२५ द्वारस्य वि १८ आ ३६ उ १२ । मालावली[ल्ली] पभासंज्ञा कदल्यासनवीक्षणाः । वीणा गर्नलताजालाः शिलचित्रप्रसाधनाः२॥३३८ उपस्यानगृहाश्वैव मोहनाच्याश्च सर्वतः । गृहा रत्नमया रम्या वानान्तरसुराषिताः ॥ ३३९ हंसक्रौञ्चमगेन्द्रास्यगंजैर्मकरनामभिः । प्रवालगण्डाख्यश्च स्फटिकप्रगतोन्नत: ॥ ३४० वीर्घस्वस्तिकवृत्तैश्च पृथलेन्द्रासनैरपि । गन्यासनैश्च रत्नाद्यैर्युक्ता देवमनोहरैः ।। ३४१ विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम् । तोरणानि तु संज्ञाभिः पूर्वादिषु चतुर्दिशम् ।। ३४२ तत्पञ्चशतविस्तारं द्वयर्धविस्तारमुच्छ्रितम् । प्रासादोऽत्र द्विविस्तारस्तोरणे चतुरुच्छ्यः ।। ३४३ [५००] १७५०। उक्तं च त्रिलोकसारे [८९२] - विजयं च वैजयंतं जयंतमपराजियं च पुव्वादो। दारचउक्काणुदओ अडजोयणमद्धवित्यारो ॥१८ (४) धनुष मात्र है ।। ३३६ ।। इन हीन प्रासादोंकी अपेक्षा मध्यम प्रासादोंके विस्तार, आयाम और ऊंचाईका प्रमाण दूना; तथा उत्तम प्रासादोंके विस्तार, आयाम और ऊंचाईका प्रमाण उनसे तिगुना है । उनके गहराई सहित जो दो दो द्वार हैं वे जघन्य प्रासादोंके द्वारोंसे प्रमाण में दूने दूने हैं ।। ३३७ ।। मध्यम प्रासादका विस्तार १००, आयाम २००, उत्सेघ १५०, द्वारका विस्तार १२, ऊंचाई २४, अवगाढ ८। उत्कृष्ट प्रासादका भी विस्तार १५०, आयाम ३००, उत्सेघ २२५, द्वारका भी विस्तार १८, ऊंचाई ३६, अवगाढ १२ धनुष ।। मालागृह, वल्लीगृह. सभागृह नामक, कदलीगृह, आसनगृह, प्रेक्षणगृह, वीणागृह, गर्भगृह, लतागृह, जालगृह (?), शिलाह (?), चित्रगृह, प्रसाधनगृह, उपस्थानगृह और मोहनगृह; ये सब ओर स्थित र मगीय कामय गृह व्यन्त र देवाले अधिष्ठित हैं ।। ३३८-३९ ।। वे प्रासाद देवोंके मनको हरने वाले हंस, क्रींच व सिंह नामक आसनोंसे ; गज जैसे आसनोंसे, मगर जैसे आसनोंसे, प्रवाल एवं गरुड नामक आसनोंसे. स्फटिक मणिमय उन्नत आसनोंसे ; दीर्घ, स्वस्तिक व गोल आकारबाले आमनोंसे ; विशाल इन्द्रासनोंसे, तथा रत्नादिनिर्मित गन्धासनोंसे भी संयुक्त हैं ।। २४०-४१ ।। पूर्वादि चारों दिशाओंमें क्रमश. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन संज्ञाओंसे युक्त चार तोरणबार स्थित हैं ॥३४२!। इनमेंसे प्रत्येक तोरणद्वार पांच सौ (५००) योजन विस्तृत और विस्तारसे डेढगुना अर्थात् साढ़े सात सौ (५००४३= ७५०) योजन ऊंचा है । उसके ऊपर जो प्रानाद स्थित है उसका विस्तार दो योजन और ऊंचाई चार योजन मात्र है।। ३४३ ।। त्रिलोकसार में भी कहा है-- विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार द्वार पूर्वादिक दिशाक्रमसे अवस्थित हैं। इन चारों द्वारोंकी ऊंचाई आठ योजन और विस्तार उससे आधा अर्थात् चार योजन है ।।१८।। १ आ प 'द्गमस्ततः । २ व प्रसादनाः । ३ प प्रतोन्नतः । ४ आ णुदवो, पणदवो। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy