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________________ ~१.३३६] प्रथमो विभागः [ ४१ मन्दरो गिरिराजश्च मेरुश्च प्रियदर्शनः। रत्नोच्चयो लोकनाभिर्मनोरम्यः सुदर्शनः ।। ३२७ दिशादिरुत्तमोस्तश्च सूर्यावर्तः स्वयंप्रभः । वतङ्को लोकमध्यश्च सूर्यावरण एव च ॥ ३२८ एवं षोडशभिः शैलः कीर्त्यते नामभिः शुभैः । वज्रमूलो मणिशिखः स्वर्णमध्यो गुणान्वितः ।।३२९ द्वादशाष्टौ चतुष्कं च मूलमध्यानविस्तृता। जगत्यष्टोच्छ्या भूमिमवगाढायोजनम् ।। ३३० ।१२।८।४। सर्वरत्नमयी मध्ये वैडूर्यशिखरोज्ज्वला । वज्रमूला च सा द्वीपं परिक्षिपति सर्वतः ॥३३१ धनुःपञ्चाशतं रुन्द्रा मूलेऽग्रेऽपि च वेदिका। जाम्बूनदमयी मध्ये गव्यूतिद्वयमुद्गता ॥३३२ तस्या अभ्यन्तरे बाह्ये वनं हेमशिलातलम् । रम्यं च वापिकाश्चित्राः प्रासादास्तत्र सन्ति च ॥३३३ शतं सार्धशतं द्विशतं विस्तृता धनुषां क्रमात् । होनमध्योत्तमा वाप्यो गाढा स्वं दशमं च ताः।।३३४ १०।१५।२० । पञ्चाशतं शतं पञ्चसप्तति धनुषां क्रमात् । विस्तृता आयता उच्चाः प्रासादास्तत्र हीनकाः ।।३३५ विस्तृता धनुषां षट् च द्वारो द्वादश चोद्गताः । अवगाढाः पुनर्भूमि शुद्ध दण्डचतुष्टयम् ॥३३६ ।१२। वह पर्वत १ मन्दर २ गिरिराज ३ मेरु ४ प्रियदर्शन (शिलोच्चय) ५ रत्नोच्चय ६ लोकनाभि ७ मनोरम ८ सुदर्शन ९ दिशादि १० उत्तम ११ अस्त (अच्छ) १२ सूर्यावर्त १३ स्वयंप्रभ १४ वतंक (अवतंस) १५ लोकमध्य और १६ सूर्यावरण; इन सोलह शुभ नामोंसे कहा जाता है। अनेक गुणोंसे संयुक्त इस मेरु पर्वतका मूल भाग वज़मय, शिखर मणिमय और मध्यभाग सुवर्णमय है ।। ३२७ -- ३२९ ॥ क्रमसे मूलमें बारह (१२) मध्यमें आठ (८) और उपरिम भागमें चार (४) योजन विस्तृत आठ (८) योजन ऊंची तथा आध (1) योजन भूमिगत अवगाह (नीव) से संयुक्त जो जगती (वेदिका) मध्य में सर्वरत्नमयी होकर वैडूर्य मणिमय शिखरसे उज्ज्वल एवं वचमय मूलभागसे सहित है वह द्वीप (जम्बूद्वीप) को चारों ओरसे वेष्टित करती है ।। ३३० - ३३१ ।। उसके मध्यभागमें जो सुवर्णमयी वेदिका है वह मूल व उपरिम भागमें भी पांच सौ (५००) धनुष विस्तृत तथा दो कोस ऊंची है ॥३३२।। उस वेदिकाके अभ्यन्तर और बाह्य भागमें सुवर्णमय शिलातलसे संयुक्त रमणीय वन, वापिकायें और विचित्र प्रासाद हैं ॥ ३३३ ॥ यहां स्थित वापियोंमें हीन वापियोंका विस्तार सौ (१००) धनुष, मध्यम वापियोंका विस्तार डेढ़ सौ (१५०) धनुष और उत्तम वापियोंका विस्तार दो सौ (२००) धनुप प्रमाण है। उनकी गहराई अपने विस्तारके दसवें भाग (१०, १५, २० धनुष) प्रमाण है ।। ३३४ ॥ वहां वेदिकाके ऊपर जो हीन (जघन्य)प्रासाद स्थित हैं वे क्रमसे पचास (५०)धनुष विस्तृत, सौ (१००) धनुष आयत और पचत्तर (७५) धनुष ऊंचे हैं ॥ ३३५ ।। इनके द्वारोंका विस्तार छह (६) धनुष, ऊंचाई बारह (१२) धनुष, और भूमिमें अवगाह शुद्ध चार १. मोऽस्तच्च । लो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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