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________________ - १.३६५] प्रथमो विभागः (४५ प्रासादानां प्रमाणं च मण्डलं च भणाम्यतः । मुख्यप्रासाद एकश्च चत्वारः प्रथममण्डले ॥ ३५६ द्वितीये षोडश प्रोक्ताश्चतुःषष्टिस्ततीयके । ततश्चतुर्गुणाः प्रोक्ता चतुर्थे पञ्चमे ततः ।। ३५७ चतुर्गणाः स्युःप्रासादाः षष्ठे तेभ्यश्चतुर्गुणाः । उत्सेधादिमितो वक्ष्ये प्रासादानां यथाक्रमम्।।३५८ मुख्यप्रासादमानास्ते प्रथमावरणद्वये। व्यासोत्सेधावगाढस्तु तृतीये च चतुर्थके ।। ३५९ यो ३१ को १ । यो ६।२ को १२ तदर्धमानाः प्रासादाः पञ्चमे षष्ठके पुनः । तदर्धमानकाः प्रोक्ताः केवलज्ञानलोचनः ।। ३६० प्रासावानां च सर्वेषां प्रत्येक वेदिका भवेत् । नानारत्नसमाकीर्णा विचित्रा च मनोरमा ॥३६१ मुख्यप्रासादके वेदी प्रथमे मण्डलद्वये । धनुःपञ्चशतव्यासगव्यूतिद्वयमुद्गता ॥ ३६२ तृतीये च चतुर्थे च तदर्धव्यासतुङ्गता। मण्डले पञ्चमे षष्ठे तदर्घोत्सेधरुन्ध्रिका ।। ३६३ गणसंकलनरूपेण स्थितानि भवनानि च । चतुःशतयुतं पञ्चसहस्रं चैकषष्ठिकम् ॥३६४ प्रासादे विजयस्यात्र सिंहासनमनुत्तरम् । सचामरं च सच्छत्रं तस्मिन् पूर्वमुखोऽमरः ।। ३६५ आगे इन प्रासादोंके प्रमाण और मण्डलका कथन करते हैं- मुख्य प्रासाद एक है। आगे प्रथम मण्डल में चार (४), द्वितीयमें सोलह (१६), तृतीयमें चौंसठ (६४), चतुर्य मण्डलमें इनसे चौगुणे (२५६), पंचम मण्डलमें उनसे चौगुणे (२५६ x ४ =१०२४) तथा छठे मण्डल में उनसे भी चोगुणे (१०२४४४=४०९६) प्रासाद हैं । आगे इन प्रासादोंके उत्सेध आदिका कथन यथाक्रमसे करते हैं ॥ ३५६-३५८॥ प्रथम दो मण्डलोंमें जो प्रासाद स्थित हैं उनके विस्तारादिका प्रमाण मुख्य प्रासादके समान (विस्तार ३१४ यो., ऊंचाई यो. ६२३, अवगाह को. २) है । तृतीय और चतुर्थ मण्डलके प्रासाद विस्तार, उत्सेध और अवगाढ़में उपर्युक्त प्रासादोंकी अपेक्षा आधे प्रमाणवाले हैं । इनसे आधे प्रमाणवाले पांचवें और छठे मण्डलके प्रासाद हैं, ऐसा केवलज्ञानियोंके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥ ३५९-६० ॥ ___ इन सब प्रासादोंमेंसे प्रत्येक प्रासादके नाना रत्नोंसे व्याप्त एक एक विचित्र मनोहर वेदिका है ॥३६१।। मुख्य प्रासाद तथा प्रथम दो मण्डलोंके प्रासादोंकी वेदी पांच सौ (५००) धनुष विस्तृत और दो कोस ऊंची है ॥३६२॥ तृतीय और चतुर्थ मण्डलके प्रासादोंकी वेदीका विस्तार व ऊंचाई उससे आधी है । इससे भी आधे विस्तार व ऊंचाईसे संयुक्त पांचवें और छठे मण्डलके प्रासादोंकी वेदी है ॥३६३॥ __ गुणसंकलन रूपसे अर्थात् उत्तरोत्तर चौगुणे चौगुणे क्रमसे स्थित वे भवन पांच हजार चार सौ इकसठ हैं-- १+४+१६+६४+२५६-१०२४-+-४०९६-५४६१ ॥३६४।।. यहाँ विजयदेवके प्रासादमें चामरों और छत्रसे सहित विजयदेवका अनुपम सिंहासन १५ उत्सेदादि । २ आ ५ मुख्यप्रासादके मानास्ते प्रपमावरणद्वये वेदी प्रथमे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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