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________________ लोकविभागः [.१.३६६ - उत्तरस्या सहस्राणिषट् सामानिकसंजिनाम् । विदिशोश्च पुरा षट् स्युरनदेव्यो हि सासनाः ॥३६६ आसन्नाष्टौ सहस्राणि परिषत्यूर्वदक्षिणा । दश मध्यमिका वेद्या दक्षिणस्यां तु सा दिशि ॥३६७ द्वादशव सहस्राणि बाहया सापरदक्षिणा । आसनेष्वपरस्यां तु सप्त सैन्यमहत्तराः ।। ३६८ अष्टादश सहस्राणि यात्मरक्षाश्चतुर्दिशम् । तासु दिक्षु च तावन्ति तेषां भद्रासनानि च ।। ३६९ अष्टादश सहस्राणि देव्यस्तत्परिवारिकाः। विजयः सेव्यमानस्तैः२ पल्यं जीवति साधिकम् ।। ३७० विजयादुत्तरस्यां च सुधर्मा नामतः सभा । सार्धद्वादशदीर्घा सा तदर्थ चापि विस्तृता ।। ३७१ योजनानि नवोद्विद्धा गाढा गव्यूतिमीरिता । उत्तरस्यां ततश्चापि तावन्मानो जिनालयः ।। ३७२ अपरोत्तरतस्तस्मादुपपातसमा शुभा। प्रासादात्प्रथमात्यूर्वा त्वभिषेकसभा ततः ।। ३७३ अलंकारसभा पूर्वा ततो मन्त्रसभा पुरः । सुधर्मासममानाश्च सभा सर्वप्रविस्तरः ॥३७४ पञ्च चैव सहस्राणि चत्वार्येव शतानि च । सप्तषष्टिश्च ते सर्वे प्रासादा विजयालये ।। ३७५ स्थित है । वह उसके ऊपर पूर्वाभिमुख होकर विराजमान होता है ।।३६५।। इसके उत्तर तथा दो विदिशाओं (वायव्य और ईशान) में सामानिक संज्ञावाले देवोंके छह हजार (६०००) सिंहासन हैं । मुख्य सिंहासनके पूर्व में अपने अपने आसन सहित छह अग्र देवियां स्थित रहती हैं ।।३६६॥ उसके पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) कोणमें अभ्यन्तर परिषदके आठ हजार (८०००), दक्षिण दिशामें मध्यम परिषदके दस हजार (१००००), और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) कोणमें बाहय परिषदके बारह हजार (१२०००) सिंहासन स्थित हैं। मुख्य सिंहासनकी पश्चिम दिशामें स्थित आसनोंके ऊपर सात सेनामहत्तर विराजते हैं । मुख्य सिंहासनकी चारों दिशाओंमें अठारह हजार (१८०००) आत्मरक्ष देव विराजते हैं, उनके भद्रासन उन्हीं दिशाओंमें उतने (१८०००) ही होते हैं ॥ ३६७-६९ ॥ उसकी पारिवारिक देवियां अठारह हजार (१८०००) होती हैं । उपर्युक्त उन सब देवोंसे उपास्यमान विजय देव साधिक एक पल्य तक जीवित रहता है ॥ ३७०।। विजयदेवके प्रासादसे उत्तर दिशामें साढ़े बारह (१२३) योजन लंबी और उससे आधी (६.यो.) विस्तृत सुधर्मा नामकी समा है ।। ३७१ ॥ उस सुधर्मा सभाकी ऊंचाई नौ योजन और गहराई एक कोस प्रमाण कही गई है । इसके उत्तरमें उतने ही प्रमाणवाला एक जिनालय है ।। ३७२ ।। उसके पश्चिमोत्तर (वायव्य) कोण में उत्तम उपपादसभा है । प्रथम प्रासादके पूर्वमें अभिषेकसभा, उसके पूर्व में अलंकारसभा, और उसके आगे मंत्रसभा स्थित है । ये सब सभाभवन विस्तारमें सुधर्मा सभाके समान प्रमाणवाले हैं ।। ३७३-७४ ॥ विजयभवनके आश्रित वे सब प्रासाद संख्यामें पांच हजार चार सौ सड़सठ (५४६७) हैं ।।३७५।। १५ शासनाः । २५ विजयस्यवमानस्तः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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