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________________ -१.३८४] प्रथमो विभागः [४७ राजाङ्गणस्य बाहचेच परिवारसुधाशिनाम् । स्फुरद्ध्वजपताकाः स्युः प्रासादा मणितोरणाः॥ तनगराबहिर्गत्वा पञ्चविंशतियोजनम् । अशोकं सप्तपणं च चम्पकं चूतनामकम् ॥ ३७७ पूर्वाद्यानि च चत्वारि वनान्येव तु मानतः। द्वादशव सहस्राणि योजनानां तदायतिः ॥ ३७८ विस्तारश्च सहस्राधं तन्मध्येऽशोकपादपः । जम्बूपीठाधमाने च जम्बूमानार्धवान् स्थितः।।३७९ चतस्रः प्रतिमास्तस्य पादपस्य चतुर्दिशम् । रत्नमय्यो जिनेन्द्राणामशोकेनातियूजिताः ॥ ३८० तस्मात्यूर्वोत्तरस्यां तु वशोकाख्यसुरस्य च । प्रासादो विजयस्येव मानतोऽशोक सेवितः ।। ३८१ विजयेन समाः शेषाः वैजयन्तादयस्त्रयः । परिवारालयायुभिः स्वदिक्षु नगराण्यपि ॥ ३८२ वर्णा यथा पञ्च सुरेन्द्र चापे यथा रसो वा लवणः समुद्रे । औषण्यं रवेश्चन्द्रमसश्च शैत्यं तदाकृतिश्चाकृतका भवन्ति ।।३८३ प्रासादशैलद्रुमसागराद्याः वर्णस्वभावाकृतिमानभेदैः । अकृत्रिमा वैलसिकास्तथैव लोकानुभावानियता हि भावाः ।। ३८४ ॥ इति लोकविमागे जम्बूद्वीपविभागो नाम प्रथमं प्रकरणं समाप्तम् ।। १॥ विशेषार्थ- मण्डलाकारसे स्थित प्रासादोंकी संख्या पीछे ५४६१ बतलायी जा चुकी है । इसमें (१) सुधर्मा सभा, (२) जिनालय, (३) उपपादसभा, (४) अभिषेकसभा, (५) अलंकारसभा और (६) मंत्रसभा; इन ६ भवनोंको संख्याके और मिला देनेपर सब भवनोंका प्रमाण ५४६७ हो जाता है। राजांगणके बाह्य भागमें भी परिवार देवोंके ध्वजा-पताकाओंसे प्रकाशमान और मणिमय तोरणोंसे संयुक्त प्रासाद हैं ।। ३७६ ।। उस नगरके बाह्यमें पच्चीस (२५) योजन जाकर अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक चार वन क्रमशः पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं । ये प्रमाणसे बारह हजार (१२०००) योजन आयत और पांच सौ (५००) योजन विस्तृत हैं। उसके मध्य में जम्बूवृक्षकी पीठसे आधे प्रमाणवाली पीठके ऊपर जम्बूवृक्षकी ऊंचाई आदिके प्रमाणसे आधे प्रमाणवाला अशोकवृक्ष स्थित है ।। ३७७-७९ ।। उस अशोक वृक्षकी चारों दिशाओं में अशोक नामक देवसे अतिशय पूजित रत्नमयी चार जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान हैं ।। ३८० ।। अशोक वृक्षकी पूर्वोत्तर (ईशान) दिशामें अशोक नामक देवका प्रासाद है। अशोक देवसे सेवित वह प्रासाद प्रमाण में विजय देवके प्रासादके समान है ।। ३८१ ॥ शेष जो वैजयन्त आदि तीन देव हैं वे परिवार, भवन और आयुमें विजय देवके समान हैं। उनके नगर भी अपनी अपनी दिशाओं में स्थित हैं ॥ ३८२ ।। जिस प्रकार इन्द्रधनुष में पांच वर्ण, समुद्र में खारा रस, सूर्य में उष्णता और चन्द्रमामें शीतता तथा उनकी आकृति ये सब अकृत्रिम (स्वाभाविक) होते हैं; उसी प्रकार प्रासाद, पर्वत, वृक्ष और समुद्र आदि पदार्थ वर्ण, स्वभाव, आकृति एवं प्रमाण आदि भेदोंसे अकृत्रिम या स्वाभाविक होते हैं । ठीक ही है- लोकके प्रभावसे पदार्थ नियत स्वभाववाले होते हैं ।। ३८३-८४ ॥ इस प्रकार लोकविभागमें जम्बूद्वीपविभाग नामक प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ ॥१॥ १५ सुदाशिनाम् । २ प ध्वजा । ३५ वर्गास्व: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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