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________________ [द्वितीयो विभागः क्षुधातृषादिभिर्दोषैर्वजितान् जिनगपुङ्गवान् । नत्वा वाादिविस्तारं व्याख्यास्यामि समासतः ।।१ द्वीपाद्विगुणविस्तारः समुद्रो लवणोदकः । द्वीपमेनं परिक्षिप्य चक्रे नेमिरिव स्थितः ॥२ वर्शवेष सहस्राणि' मूलेऽग्रेऽपि पृथुमतः । सहस्रमवगाढो गामवं स्यात् षोडशोच्छितः ।। ३ उक्तं च त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [४-२४००]चित्तोपरिमतलादो कूडायारेण उवरि वारिणिही । सत्तसयजोयणाई उदएण णहम्मि चिठेदि ।। १ देशोना नव च त्रीणि एकमेकं तथाष्टकम् । पञ्चकं च परिक्षेपः स्थानकलवणोदधेः ।। ४ प्रदेशान् पञ्चनतिं गत्वा देशमधोगतः। एवमङगुलहस्तादीन् जगत्या योजनानि च ॥५ पञ्चानां नवति देशान् गत्वा देशांश्च षोडश । उच्छितोऽङगुलदण्डाद्यानेवमेव समुच्छ्रितः ॥ ६ . क्षुधा और तृषा आदि दोषोंसे रहित जिनेन्द्रोंको नमस्कार करके मैं संक्षेपसे सब समुद्रोंमें आदिभूत लवणसमुद्रके विस्तार आदिका वर्णन करूंगा ॥ १॥ जम्बूद्वीपकी अपेक्षा दुगुणे विस्तारवाला लवणोदक समुद्र इस द्वीपको घेरकर चक्र (पहिया) में नेमिके समान स्थित है । अर्थात् जैसे नेमि (हाल) चक्रको सब ओरसे वेष्टित करती है वैसे ही लवण समुद्र जम्बूद्वीपको सब ओरसे वेष्टित करके स्थित है ॥२॥ वह मूलमें और ऊपर भी दस ही हजार (१००००) योजन पृथु (विस्तृत) माना गया है। इसकी गहराई पृथिवीके ऊपर एक हजार (१०००) योजन और [सम जलभागसे] ऊपर ऊंचाई सोलह योजन प्रमाण है ॥३॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें कहा भी है यह समुद्र चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे ऊपर आकाशमें सात सौ (७००) योजन ऊंचा होकर कूटके आकारसे स्थित है ॥ १ ॥ लवण समुद्र की परिधि कुछ कम नी, तीन, एक, एक, आठ, पांच और एक (१५८११३९) इन स्थानकों (अंकों) के क्रमसे पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन प्रमाण है ॥ ४ ॥ लवण समुद्र जगतीसे पंचानबै प्रदेशोंकी हानि करके एक प्रदेश नीचे गया है। इसी प्रकारसे अंगुल, हप्तादिक और योजनोंकी भी हानि समझना चाहिये ॥५॥ वह पंचानबै प्रदेशोंकी हानि करके सोलह प्रदेश ऊपर गया है । इसी प्रकारसे ही ऊपर अंगुल और धनुष आदिकी भी हानि जानना चाहिये ॥ ६ ॥ विशेषार्थ--लवण समुद्रका विस्तार समभूमिपर २००००० योजन है। यह विस्तार क्रमसे उत्तरोत्तर हीन होकर १००० योजन नीचे जानेपर १०००० यो. मात्र रह गया है। इसी क्रमसे उत्तरोत्तर हीन होकर वह १६००० योजन ऊपर भी जाकर १०००० यो. मात्र रह गया है । इस विस्तारमें किस क्रमसे हानि हुई है, यह यहां निर्दिष्ट किया है। हानि-वृद्धिके प्रमाणको जाननेके १५ दर्शवेश । २ आप गावं । ३ ा प उदयेण ण ण हम्मि । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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