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________________ -२.९] द्वितीयो विभागः [ ४९ एकादश सहस्राणि यमवास्यां गतोच्छ्यः । ततः पञ्च सहस्राणि पौणिमास्यां विवर्धते ॥७ पञ्चानां तु सहस्राणां भागः पञ्चदशो हि यः । स भवेत् क्रमशो वृद्धिः शुक्ल पक्षे दिने दिने ।। ८ अधस्ताखलु संक्षिप्तो द्रोणीवोध्वं विशालकः । भूमौ व्योम्नि विपर्यासः समुद्रो नौसमो द्विधा ।।९ लिये साधारणतः यह नियम है- भूमिमें से मुखको कम करके शेषमें ऊंचाईका भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना भूमिकी ओरसे हानि और मुखकी ओरसे वृद्धिका प्रमाण होता है। यहां भूमिका प्रमाण २०००००, मूखका प्रमाण १०००० और ऊंचाईका प्रमाण १००० यो. है। अतएव उक्त प्रक्रियाके करनेपर प्रकृत हानि-वृद्धिका प्रमाण इस प्रकार आता है- २०००००००१०००° = १९० यो., यह दोनों तटोंकी ओरसे होनेवाली हानि-वृद्धिका प्रमाण है । इसे आधा कर देनेपर एक ओरसे होनेवाली हानि-वृद्धिका प्रमाण इतना होता है - १६ == ९५ यो.। इसका अभिप्राय यह हुआ कि लवणसमुद्रके सम जलतल भागसे १ योजन नीचे जाने पर उसके विस्तारमें क्रमशः एक ओरसे ९५ यो. की हानि हो जाती है। इसी क्रमसे एक प्रदेश नीचे जाकर ९५ प्रदेशोंकी, १ अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलोंकी, तथा १ हाथ आदि नीचे जाकर ९५ हाथों आदिकी भी हानि समझ लेना चाहिये। इस हानिप्रमाणको लेकर जितने योजन नीचेका विस्तार जानना अभीष्ट हो उतने योजनोंसे उसे गुणित करके जो प्राप्त हो उसे भूमिके प्रमाणमेंसे घटा देनेपर अभीष्ट विस्तारका प्रमाण प्राप्त हो जाता है -- उदाहरण- यदि हमें १२५ यो. नीचे जाकर उक्त विस्तारका प्रमाण जानना अभीष्ट है तो वह उक्त प्रक्रियाके अनुसार इस प्रकार आ जाता है-- - १२५ = ११८७५ यो.। जलशिखाके उपरिम विस्तारमें हानि-वृद्धिका प्रमाण इस प्रकार होगा- भूमि २०००००, मुख १००००, ऊंचाई १६०००; २००००००००००० = ११ यो.। एक ओरसे होनेवाली हानि-वृद्धि १३यो. । इसके आश्रयसे अभीष्ट ऊंचाईके ऊपर पूर्वोक्त क्रमके अनुसार ही विस्तारकी हानिको ले आना चाहिये। अमावास्याके दिन उक्त जलशिखाकी ऊंचाई ग्यारह हजार (११०००) योजन होती है । पूर्णिमाके दिन वह उससे पांच हजार योजन बढ़ जाती है ( ११०००+५००० = १६०००) ॥ ७ ॥ पांच हजारका जो पन्द्रहवां भाग है (१६०००-११००° = ५९९०) उतनी शुक्ल पक्षमें क्रमशः प्रतिदिन उसकी ऊंचाईमें वृद्धि होती है ।। ८ ।। समुद्र भूमिमें नीचे नावके समान संक्षिप्त होकर क्रमसे ऊपर विस्तीर्ण हुआ है । आकाशमें उसकी अवस्था इससे विपरीत है, अर्थात् वह नीचे विस्तीर्ण होकर क्रमसे ऊपर संकुचित हुआ है। इस प्रकारसे वह एक नावके ऊपर विपरीत क्रमसे रखी गई दूसरी नावके समान है ॥ ९ ॥ कहा भी है १ व पौर्णमास्यां। लो. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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