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________________ ५०] लोकविभागः [२.१०उक्तं च [ ] संक्षिप्तोऽम्बुधिरूधिश्चित्राप्रणिधौ विशालकः । अधोमुखबहित्रं वा बहिनोपरिसंस्थितम् ॥ २ मध्ये तस्य समुद्रस्य पूर्वादौ वडवामुखम् । कदम्बकं च पातालमुत्तरं यूपकेसरम् ।। १० मूले मुखे च विस्तारः सहस्राणि दशोदितः । गाधमध्यमविस्तारौ मूलाद्दशगुणौ स्मृतौ ॥ ११ बाहल्यं तु सहस्रार्ध कुड्यं वज्रमयं च तत् । तान्यरञ्जनतुल्यानि भाषितानि जिनोत्तमैः ।। १२ पातालानां तृतीये तु ऊर्वे भागे सदा जलम् । मूले वायुर्घनो नित्यं क्रमान्मध्ये जलानिलो' ॥१३ तृतीयभागः ३३३३३ । ३। पौणिमास्यां भवेद्वायुः तस्य पञ्चदशक्रमात् । पूर्यते सलिलर्भागः कृष्णपक्षे दिने दिने ॥१४ २२२२ । ३। विविक्ष्वपि च चत्वारि समपातालका नि हि । मुखे मूले सहस्रं च मध्ये दशगुणं ततः ।। १५ सहस्राणि दशागाढं पञ्चाशत्कुडयरुन्द्रता । तेषां तृतीयभागेषु ३३३३।३। पूर्ववज्जलमारुतौ ॥१६ प्रतिदिनं जलवायुहानि-वृद्धि २२२ । । समुद्र ऊपर नीचे संक्षिप्त और चित्रा पृथिवीके प्रणिधि भागमें विस्तीर्ण है । इसलिये उसका आकार एक नावके ऊपर स्थित अधोमुख दूसरी नावके समान है ।। २ ॥ उस समुद्रके मध्य भागमें पूर्वादिक दिशाओंके क्रमसे वडवामुख, कदम्बक, पाताल, और उत्तरमें यूपकेसर नामक चार पाताल हैं॥१०॥ इन पातालोंका विस्तार मूलमें और मुखमें दस हजार योजन प्रमाण कहा गया है । इनकी गहराई और मध्यविस्तार मूलविस्तारकी अपेक्षा दसगुणा (१०००० x १० = १००००० यो.) माना गया है ।। ११ ।। पातालोंकी वज्रमय भित्तिका बाहल्य पांच सौ (५००) योजन प्रमाण है । वे पाताल जिनेन्द्रोंके द्वारा अरंजन (घटविशेष) के समान कहे गये हैं ।।१२।। पातालोंके उपरिम विभाग (३३३३३३) में सदा जल रहता है। उनके मूल भागमें नित्य घना वायु और मध्य में क्रमसे जल व वायु दोनों रहते हैं ।। १३ ।। उनके मध्यम भागमें पन्द्रह दिनोंके क्रमसे पौर्णमासीके दिन केवल वायु रहता है, वही मध्यम विभाग कृष्ण पक्षमें प्रतिदिन क्रमशः जलसे पूर्ण किया जाता है ।। १४ ।। यहां प्रतिदिन होनेवाली जल-वायुकी हानिवृद्धिका प्रमाण २२२२६ यो. है । विदिशाओंमें भी इनके समान चार मध्यम पाताल स्थित हैं। उनका विस्तार मुख और मूल भागमें एक हजार (१०००) योजन तथा मध्यमें उससे दसगुणा (१००००) है ।। १५ ॥ उनकी गहराई दस हजार (१००००) योजन तथा भित्तिका विस्तार पचास (५०) योजन है। उनके तीन तृतीय भागों (३३३३१ यो. ) में पूर्व पातालोंके समान जल, वायु और जल-वायु स्थित है ।। १६ ।। प्रतिदिन होने वाली जल-वायुकी हानि-वृद्धिका प्रमाण २२२३ यो. है । १५ जलानिधौ । २ आ पौर्णमास्यां ब पूर्णमास्यां । ३ ब रुंध्रता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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