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________________ -२.२०] द्वितीयो विभागः अष्टास्वन्तरदिक्षवन्यत्ततः क्षुल्लसहस्रकम् । दशभागसमं मानस्त्रिभागरपि पूर्ववत् ॥१७ त्रिभागः ३३३ । । प्रतिदिनं जल-वायुहानि-वृद्धि २२।३।। नगराणां सहस्रं तु द्विचत्वारिंशताहत । 'वेलंधरभुजंगानामन्तर्भागाभिरक्षिणाम् ॥ १८ नगराणां सहस्रं तु वष्टाविंशतिताडितम् । अग्रोदकं धारयतां नागानामिति वर्ण्यते ॥ १९ नगराणां सहस्रं [तु] द्विसप्ततिसमाहतम् । रक्षितृणां बहिर्भागं समुद्रस्येति भाष्यते ॥२० त्रिलोकसारे उक्तं च द्वयम् [९०३-९०४] 'वेलंधरभुजगविमाणाण सहस्साणि बाहिरे सिहरे । अन्ते बाहत्तरि अडवीसं बादालयं लवणे ॥३ ७२०००।२८०००।४२०००। विशेषार्थ-- मध्यम पातालोंकी गहराईका प्रमाण १०००० यो. है, अतः उसके एक तृतीय भागका प्रमाण हुआ १०००० = ३३३३३ यो. । अब यदि मध्यम विभागके भीतर १५ दिनोंमें इतनी (३३३३३ यो.) जल व वायुकी हानि-वृद्धि होती है तो वह १ दिन में कितनी होगी, इस प्रकार ३३३३१ में १५ का भाग देनेपर १ दिनमें होनेवाली हानि-वृद्धिका उपर्युक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है। यथा--३३३३३ = १०००० ; १५ = १५; १९९०० : = २२२३ यो.। इसी प्रकार उत्तम पातालों और जघन्य पातालोंके मध्यम विभागमें भी प्रतिदिन होनेवाली जलवायुकी हानि-वृद्धिका प्रमाण ले आना चाहिये। उपर्युक्त उत्तम और मध्यम पातालोके मध्यमें आठ अन्तर दिशाओंमें दूसरे एक हजार (१०००) जघन्य पाताल स्थित हैं। इनके विस्तार आदिका प्रमाण मध्यम पातालोंकी अपेक्षा दसवें भाग मात्र है । इनके भीतर भी तीन तीन विभागों और उनमें स्थित जल-वायुके क्रमको पूर्ववत् ही समझना चाहिये ।। १७ ।। त्रिभाग ३३३३ यो., प्रतिदिन जल-वायुकी हानि-वृद्धि २२३ यो.। ___अभ्यन्तर भागका रक्षण करनेवाले (जंबूद्वीपकी ओर प्रविष्ट होनेवाली वेलाकी रक्षा करनेवाले) वेलंधर नागकुमार देवोंके नगर ब्यालीससे गुणित एक हजार अर्थात् ब्यालीस हजार (४२०००) प्रमाण हैं ॥ १८ ॥ अग्रोदक (जलशिखा) को धारण करनेवाले नागकुमार देवोंके नगर अट्ठाईससे गुणित एक हजार अर्थात् अट्ठाईस हजार (२८०००) कहे जाते हैं ॥ १९ ।। समुद्रके बाह्य भाग (धातकीखण्ड द्वीपकी ओरकी वेला) की रक्षा करनेवाले नागकुमार देवोंके नगर बहत्तर हजार (७२०००) प्रमाण हैं, ऐसा कहा जाता है ।। २० ॥ त्रिलोकसारमें इस सम्बन्धमें दो (९०३-९०४) गाथायें भी कही गई हैं -- ____ लवण समुद्रके बाह्य भागमें, शिखरपर और अभ्यन्तर भागमें क्रमसे वेलंधर नागकुमार देवोंके बहत्तर हजार (७२०००), अट्ठाईस हजार ( २८००० ) और ब्यालीस (४२०००) १. वेलबर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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